Thursday, October 15, 2009

हिन्द स्वराज में दुनिया के सभी समस्याओं का समाधान नहीं है – गौतम चौधरी

हिन्द स्वराज पर टिप्पणी करने से पहले इस देश के अतीत और अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि को खंगाला तो लगा कि जो गांधी कह रहे हैं वह हम पीढियों से करते आ रहे हैं। मेरा ननिहाल दरभंगा से सीतामढी की ओर जाने वाली छोटी लाईन के रेलवे स्टेषन कमतौल में है। मेरे मामा साम्यवादी थे और भारतीय कौम्यूनिस्ट पार्टी से जुडे थे। मेरा बचपन वहीं बीता लेकिन बीच बीच में अपने घर और अपने पिताजी के नलिहाल कैजिया भी जाता आता रहता था। कैजिया के बडे किसान रामेश्वर मिश्र हमारी दादी के भाई थे। कैंजिया में रहने से सामंती प्रवृति से परिचय हुआ और कमतौल में रहने से साम्यवाद का ककहरा पढा। फिर मेरे दादा समाजवादी धरे से जुडे रहे और उस जमाने के समाजवादी कार्यकर्ता सिनुआरा वाले गंगा बाबू हमारे यहां आया जाया करते थे। इन तमाम पृष्ठिभूमि में मेरे व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है। डॉ0 राम मनोहर लोहिया की किताब से मैं बचपन से परिचित हूं। हिन्द स्वराज मैंने बाद में पढी। कुल मिलाकर जिस प्रकार के पृष्ठभूमि से मैं आता हूं उसमें गांधी से कही ज्यादा अपने आप को लोहिया के निकट पाता हूं। हिन्द स्वराज से असहमत नहीं हूं लेकिन गांधी के इस गीता पर पूरे पूरी सहमत भी नहीं हूं। मेरी दृष्टि में गांधी का चिंतन जडवादी और भौतिकवादी जैन चिंतन से प्रभावित है। जैन चिंतन के उस धारा से तो सहमत हूं कि दुनिया एक ही तत्व का विस्तार है लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता कि दुनिया जैसी है वैसी ही रहेगी और अनंतकाल तक चलती रहेगी।

सच पूछो तो गांधी के चिंतन में भारी द्वंद्व है। गांधी ने हिन्द स्वराज में अंग्रेजी सम्यता को बार बार नकारा है लेकिन जब भारत के प्रधानमंत्री के पद पर चयन की बात होती है तो गांधी अंग्रेजी सभ्यता के पैरोकार पं0 जवाहरलाल नेहरू का चयन करते हैं। इसे आप क्या कहेंगे? जिस अहिंसा को गांधी और आज के गांधीवादी हथियार बनाने पर तुले हैं वह अपने आप में एक माखौल बन कर रह गया है। अब देखिए न संयुक्त राज्य अमेरिका देखते देखते दो सम्प्रभु राष्ट्र को मिट्टी में मिला दिया और उस देश का राष्ट्रपति कहता है कि हम तो गांधी के बोए बीज हैं। कोई बताए कि क्या गांधी के अहिंसा से भारत को आजादी मिली? पूरी दुनिया अगर एक ओर खडी होकर यह कहे कि गांधी के अहिंसा ने भारत को आजादी दिलाई तो भी मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं होउंगा कि गांधी के अहिंसक सिंध्दांत के कारण भारत आजाद हुआ। ओबामा के द्वारा कहा गया कि गांधी के साथ रात का भोजन करना चाहुंगा यह एक छालावा है। ओबामा ही नहीं, अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति अपने मन की बात न कहता है और न ही कर सकता है। वह अमेरिका की बात करता है और अमेरिका का मतलब है उत्पाद, उपभोग और विनिमय, जहां केवल और केवल उपभोगतावाद हावी है।

गांधी अपनी किताब हिन्द स्वराज में लिखते हैं कि हम भारत को इग्लैंड नहीं बनाना चाहते हैं। फिर लिखते हैं कि इग्लैड का पार्लियामेंट बांझ और वेश्या है। औद्योगिकरण को हिंसा मानने वाले गांधी भारत को जिस सांचे में ढालना चाहते हैं वह सांचा खतरनाक है और भारत को उस ढांचे में ढाला ही नहीं जा सकता है। हां, स्वयं पर नियंत्रण, संयम आदि गांधी के आदर्श तो ठीक हैं लेकिन इसका घालमेल राजनीति में नहीं किया जा सकता है। किसी देश पर कोई न कोई आक्रमण करता ही है। राष्ट्र को क्षति पहुंचाने वाली शक्ति से लोहा लेने के लिए शक्ति का संग्रह जरूरी है। इसके लिए संयम भी जरूरी है लेकिन आज अहिंसा को जिस रूप में प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है, उससे एक पूरे तंत्र को चला पाना संभव नहीं है। कोई आक्रांता हमारे संसाधनों को लूटे और हम भूखे मरें फिर यह कहें कि अहिंसा ही मेरा परम धर्म है तो नहीं चलेगा। भारत की गुलामी का सबसे बडा कारण भारतीय समाज का अहिंसक होना है। हमने अपने समाज की संरचना इस प्रकार कि की वह संतुष्ट होता चला गया। एक गांव अपने आप में देश हो गया। इसके फायदे तो हैं लेकिन इसस घाटा भी कम नहीं है। फिर एक गांव को दुसरे गांव से मतलब ही नहीं रहा। देश के दुश्मन आए एक गांव पर आक्रमण किया और दुसरा गांव देखता रहा। नालंदा का विश्वविद्यालय इसलिए जला क्योंकि उस विश्वविद्यालय के चारो ओर विश्वविद्यालय के हित की चिंता करने वाले लोग नहीं थे। विश्वविद्यालय से स्थानीय जन को कोई फायदा नहीं पहुंच रहा था लेकिन चारो तरफ के किसानों को अपने फसल का आधा भाग विश्वविद्यालय को देना पडता था। फिर पडोस के किसान विश्वविद्यालय के हित की चिंता क्यों करें? गांधी का दर्शन कुछ इसी प्रकार का दर्शन है। फिर गांधी संस्कृति और सम्यता को घालमेल करते हैं। इसलिए इस दिष को सबसे अधिक समझने वाला कोई है तो वह डॉ0 राम मनोहर लोहिया है। गांधी के त्याग और तपष्या के कारण लोहिया ने गांधी का इज्जत तो किया है लेकिन लेहिया ने गांधी का कभी समर्थन नहीं किया। फिर इस देश को और बढिया ढंग से समझा तथा समझाने का प्रयास किया पं0 दीनदयाल उपाध्याय ने। यह देश संघीय संरचना का देश हो ही नहीं सकता है। मैं जब उत्तराखंड में था तो वहां भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता मनोहर कांत ध्यानी के संपर्क में आया। उत्तराखंड के ध्यानी तेलंग ब्राह्मण हैं। वे आज से लगभग 1000 वर्श पहले वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए गढवाल आए। पं0 ध्यानी का कहना है कि दक्षिण से चलकर एकदम निर्जन भूभाग में आना और फिर वहां एक सांस्कृतिक संरचना और धार्मिक आस्था की रचना करना यह एकात्मता को प्रदर्षित करता है। इसलिए इस देश को संघों का समूह नहीं कहा जा सकता है यह देश एकात्म संरचना का देश है क्योंकि इस देश में जो सांस्कृतिक संरचना दक्षिण में है वही उत्तर में भी है। हो सकता है कि कुछ लोगों ने अपनी मान्यता बदल ली हो लेकिन आज भी उनके अंदर वो मान्यताएं लगातार जोड मारती है जो उनको अपने पूर्वजों से प्राप्त हुआ है। तभी तो मुसलमान मजार को पूजने लगे हैं और ईसाइयों ने मांता मरियम का मंदिर बनाना प्रारंभ कर दिया।

गांधी सत्य की बात करते है। सत्य क्या है? इस पर भयानक विवाद है। हम किसी वस्तु को देखते हैं फिर उसकी व्याख्या करते हैं। सबसे पहले तो किसी वस्तु को हम पूरा देख नहीं पाते, फिर शब्दों में वह सामर्थ नहीं है कि वह किसी वस्तु की सही व्याख्या कर ले। तो फिर गांधी किस सत्य की बात कर रहे हैं? सत्य एक सापेक्ष सत्य है। फिर सत्य को हम कैसे आत्मसात कर सकते हैं। बडी मषीन और उद्योगों को गांधी हिंसा मानते थे। आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसा संभव है क्या? गांधी का चिंतन सवासोलह आने अतीत जीवी है। जो लोग आज के समय में गांधी की प्रसांगिकता के गीत गा रहे हैं वे मर्सिया गाने के अलावा और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा कहते हैं कि आज के अमेरिका की जड भारत में है। ओबामा किस अमेरिका की बात कर रहे हैं, उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए। अगर वे अमेरिका देश की बात कर रहे हैं तो उसकी जड भारत में नहीं इग्लैंड में होनी चाहिए। हां, ओबामा को राष्ट्रपति बनाने वाले अमेरिका की जड भारत में हो सकता है। लेकिन ओबामा के महज राष्ट्रपति बन जाने से क्या अमेरिका में परिवर्तन आ जाएगा? अमेरिका एक ऐसा देश बन गया है जहां स्वंग गांधी जाकर बस जाए तो वे गांधी नहीं रह सकते। आज का अमेरिका दुनियाभर के भौतिकवादियों, उपभोक्तावादियों का मक्का और लेनिनग्राद बनकर उभरा है। भारत को बडगलाने के लिए अमेरिकी व्यापारी ओबामा के मुह से गांधी गांधी कहलवा रहे हैं।

गांधी के हिन्द स्वराज से दिशा ली जा सकती है लेकिन वह आदर्श नहीं हो सकता है। इस देश को खडा करना है तो गांधी से ज्यादा महत्व का विचार लोहिया का है, उसे अपनाना होगा, फिर दीनदयाल ने उसे और ज्यादा स्पष्ट कर दिया है। देश के संसाधनों पर राजसत्ता का नहीं समाज का अधिकार होना चाहिए। समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन सरकार पर नियंत्रण रखे। सरकार का काम वाह्य सुरक्षा है तथा नीतियों का निर्धरण है। तेल बेचना, गाडी चलाना और बैंक चलाना सरकार का काम नहीं है। ऐसा समझ कर देश को खडा करना चाहिए। गांधी को पूरे पूरी कदापि ग्रहण नहीं किया जा सकता है और न ही हिन्द स्वराज में दुनिया के सभी समस्याओं का समाधान है। जैसे एक कर्मकांडी ब्रांह्मण दुनिया के सभी समस्याओं का समाधान वेद में ढुढता है और मौलवी कुरान तथा साम्यवादी दास कैपिटल में उसी प्रकार गांधी के हिन्द स्वराज में गांधीवादी सभी समस्या का समाधान ढुंढने का प्रयास करने लगे हैं जिसे सही नहीं ठहराया जा सकता है। संक्षेप में दुनिया को शांति पहुंचाने वाला दर्शन जिसे कहा जाता है वह बौध दर्शन दुनिया में सबसे ज्यादा हिंसा करने वाला दर्शन साबित हो चुका है। जैनियों ने हजारों ब्रांह्मणों की हत्या की है और ब्रांह्मणों ने हजारों बौध्द तथा जैनियों को मौत के घाट उतारा है। इस परिस्थिति में गांधी को हम कहां प्रसांगिक मानते हैं इसपर लंबी बहस की गुंजाईस है। ऐसे मैं गांधी के हिन्द स्वराज में मानव का हित जरूर देखता हूं लेकिन दुनिया की समस्याओं का समाधान हिन्द स्वराज से नहीं हो सकता है। न ही भारत को उसके आधार पर खडा ही किया जा सकता है।

Friday, October 2, 2009

चीनी कुटनीतिक आक्रमण और साम्यवादी खटराग - गौतम चौधरी

खबरदार चीन के खिलाफ कुछ बोले तो जन-अदालत लगाकर नाक, कान, हाथ, पैर आदि काट लिए जाएंगे। वर्ग-शत्रु घोषत कर अभियान चलाया जाएगा। जुवान खोली तो हत्या भी की जा सकती है। याद रहे चाहे चीन कितना भी भारत के खिलाफ अभियान चलाये कोई कुछ कह नहीं सकता है, बोल नहीं सकात है। इस देश में साम्यवादियों के द्वारा चीनी कानून लागू किया जाएगा। पश्चिम बंगाल की तरह भारतीय लोकतंत्र की हत्या होगी और उसके स्थान पर बस साम्यवादी गिरोह देश पर शासन करेंगे। सबकी जुबान बंद कर दी जाएगी और कोई चूं शब्द बोला तो उसे गरीबों का दुश्मन घोषित कर हत्या कर दी जाएगी। चीनी साम्यवादी आतंक के 60वें सालगिरह पर यह फरमान जारी किया है देश के साम्यवादियों ने। साम्यवादी चरमपंथी 3 अक्टूबर से चीन के खिलाफ बोलने वालों को मौत के घाट उतारने का अभियान चलाने वाले हैं। भले पश्चिम बंगाल में माओवादियों और साम्यवादी सरकार के बीच दोस्ताना लडाई चल रही हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर दोनों के बीच समझौता है। चीन को अपना आदर्श मानने वाली कथित लोकतंत्रात्क पार्टी माक्र्सवादी काम्यूनिस्ट पार्टी और भारतीय काम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) एक ही आका के दो गुर्गे हैं। भले चीन भारत के खिलाफ कूटनीतिक युद्ध लड रहा हो लेकिन इन दोनों साम्यवादी धरों का मानना है कि चीन भारत का शुभचिंतक है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का नम्बर एक दुश्मन।

चीन भारत के खिलाफ पूरी ताकत से कूटनीतिक अभियान चला रखा है लेकिन भारतीय साम्यवादी, चीनी वकालत पर आमादा है। देश के सबसे बडे साम्यवादी संगठन के नेता का. प्रकाश करात ने चीन के बनिस्पत देश के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ज्यादा खतरनाक बताया है। अपनी पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के ताजा अंक में उन्होंने लिखा है कि देश की कारपोरेट मीडया, संयुक्त राज्य अमेरिका, दुनिया के हथियार ऐजेंट और आरएसएस के गठजोड के कारण चीन के साथ भारत का गतिरोध दिखाई दे रहा है, वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। का. करात के ताजे आलेख का कुल लब्बोलुआब है कि चीन तो भारत का सच्चा दोस्त है लेकिन आरएसएस के लोग देश के जानी दुश्मन है। शुक्र है कि का. करात ने अपने कार्यकर्ताओं को आरएसएस के खिलाफ अभियान चलाने का फरमान जारी नहीं किया है। हालांकि साम्यवादियों के सबसे बडे दुश्मन के रूप में आरएसएस चिन्हित है। गाहे बगाहे ये उनके खिलाफ अभियान भी चलाते रहते हैं। अभी हाल में ही संत लक्ष्मणानंद की हत्या साम्यवादी ईसाई मिशनरी गठजोड का प्रमाण है। केरल में, आंध्र प्रदेश में, उडीसा में, बिहार और झारखंड में, छातीसगढ में, त्रिपुरा में यानी जहा साम्यवादी हावी हैं वहां इनके टारगेट में राष्ट्रवादी हैं। साम्यवादी कहे या नहीं कहे लेकिन आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्या इनके एजेंडे में शमिल है। देश की स्मिता की बात करने वालों को अमेरिकी एजेंट ठहराना और देश के अंदर साम्यवादी चरंपथी, इस्लामी जेहादी तथा ईसाई चरमपंथियों का समर्थन करना इस देश के साम्यवादियों की कार्य संस्कृति का अंग है।

चीनी फरमान से अपनी दिनचर्या प्रारंभ करने वाले ये वही साम्यवाद हैं जिन्होंने सुभाष चंद्र बोस को तोजो का कुत्ता कहा था, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने दिल्ली दूर और पेकिंग पास के नारे लगाते रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने सन 62 की लडाई में आयुध्द कारखानों में हडताल का षडयंत्र किया था, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने कारगिल की लडाई को भाजपा संपोषित षडयंत्र बताया था, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने पाकिस्तान के निर्माण को जायज ठहराया था, ये वही साम्यवादी है जो देश को विभिन्न संस्कृति का समूह मानते हैं, ये वही साम्यवादी हैं जो यह मानते हैं कि आज भी देश गुलाम है और इसे चीन की ही सेना मुक्त करा सकती है, ये वही साम्यवादी हैं जो बाबा पशुपतिनाथ मंदिर पर हुए माओवादी हमले का समर्थन कर रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जो महान संत लक्ष्मणानंद सरस्वती को आतंकवादी ठहरा रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जो बिहार में पूंजीपतियों से मिलकर किसानों की हत्या करा रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने महात्मा गांधी को बुर्जुवा कहा लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक सघ के माथे ऐसे कलंक नहीं लगे है। फिर भी साम्यवादी करात को चीन नजदीक और राष्ट्रवादी दुश्मन लगने लगे हैं। यह करात नहीं चीन का एजेंडा भारतीय मुंह से कहलवाया जा रहा है। आलेख की व्याख्या से साफ लगता है कि करात सरीखे साम्यवादी चीनी सहायता से भारत के लोकतंत्र का गला घोटना चाहते हैं। भारत की काम्यूनिस्ट पार्टी माओवादी ने अपने ताजे बयान में कहा है कि हमें किसी देश का एजेंट नहीं समझा जाये लेकिन उसके पास से जो हथियार मिल रहे हैं वे चीन के बने हैं। इसका प्रमाण विगत दिनों मध्य प्रदेश पुलिस के द्वारा चलाये गये अभियान के दौरान मिल चुका है। चीन लगातार अरूणांचल, कश्मीर, सिक्किम पर विवाद खडा कर रहा है, नेपाल में भारत के खिलाफ अभियान चला रहा है, पाकिस्तान को भारत के खिलाफ भडका रहा है, अफगानिस्तान में तालिबानियों को सह दे रहा है फिर भी का0 करात के नजर में चीन भारत का सच्च दोस्त है। आज पूरी दुनियां ड्रैगन के आतंक से भयभीत है लेकिन भारतीय साम्यवादियों को ड्रैगन का खौफ नहीं उसकी पूंछ पर लगी लाल झंडी दिखई दे रही है। पेकिंग को साम्यवादी मक्का और चीन को साम्यवादी शक्ति का केन्द्र मानने वाले भारतीय साम्यावादी गिरोह के सरगना का आलेख इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि एक ओर जहां चीन अपने आतंक और साम्यवादी साम्राज्य का 60 वां वर्षगांठ मना रहा है वही दूसरी ओर चीन भारत के उत्तरी सीमा पर दबाव बढा रहा है। ऐसे में का. करात के आलेख के राजनीतिक और कूटनीतिक अर्थ लगया जाना स्वाभाविक है। आलेख में करात लिखते हैं कि पष्चिमी देश आरएसएस के माध्यम से षडयंत्र कर भारत को चीन के साथ लडाना चाहता है।

करात के इस आलेख की कूटनीतिक मीमांसा की जाये तो यह लेख केवल करात का लेख नहीं माना जाना चाहिए। इसके पीछे आने वाले समय में चीन की रणनीति की झलक देखी जानी चाहिए। अगर चीनी विदेश मंत्रालय के भारत पर दिये गये बयान को देखा जाये तो कुछ इसी प्रकार की बातें चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी विगत दिनों कही है। चीनी विदेश मंत्रालय कहता है कि भारत की मीडिया पूंजीपरस्तों के हाथ का खिलौना बन गयी है। यही करण है कि भारत और चीन के संबंधों को बिगाडने का प्रयास किया जा रहा है। चीन ऐसा कुछ भी नहीं कर रहा है जिससे भारत को डरना चाहिए। लेकिन कार्यरूप में चीनी सेना ने भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया। भारतीय सीमा के अंदर आकर पत्थडों पर चीन लिख, भारतीय वायु सीमा का चीनी वायु सेना ने उलंघन किया, दलाई लामा के तमांग प्रवास पर चीन ने आपति जताई और अब कष्मीरियों को को अलग से चीनी बीजा देने का मामला प्रकाश में आया है। ये तमाम प्रमाण भारत के खिलाफ चीनी कूटनीतिक आक्रमण के हैं, बावजूद साम्यवादी करात के लिए चीन भारत का सच्च दास्त है। करात अपने ताजे आलेख से केवल अपना विचार नहीं प्रकट कर रहे हैं अपितु संबंधित संगठनों को धमका भी रहे हैं।

लेकिन करात को भारत में रह कर चीन की वकालत नहीं करनी चाहिए। इस देश के अन्न और पानी पर पलने वाले करात को यह समझना चाहिए कि चीन एक आक्रामक देश है। चीन से आज दुनिया भयभीत है। चीन के साथ जिस किसी देश की सीमा लग रही है उसके साथ चीन का गतिराध है। चीनी दुनिया में चौधराहट स्थापित करने और साम्यवादी साम्राज्य के विस्तार के लिए लगातर प्रयत्नशील है। ऐसी परिस्थति में चीन भारत जैसे लोकतांत्रिक देश का मित्र कैसे हो सकता है। चीन भारतीय लोकतंत्र से भयभीत है। उसे लग रहा है कि भातीय हवा अगर चीन में वही तो चीनी साम्यवादी साम्राज्य ढह जाएगा। इसलिए चीन भारत को या तो समाप्त करने की रणनीति बना रह है या साम्यवादी सम्राज्य का अंग बनाने की योजना में है। कुल मिलाकर प्रकाश करात चाहे जितना चीन की वकालत कर लें लेकिन चीन तो चीन है जिसके बारे में नेपोलियन ने कहा था इस राक्षस को सोने दो अगर जगा तो यह दुनिया के लिए खतरा उत्पन्न करेगा। करात साहब विचारधारा अपने पास भी है। लाल गुलामी छोड कर वंदेमातरम बोलने की आदत डालिए.

Saturday, September 26, 2009

मोदी को घेरने के फिराक में अभिजात्य गिरोह - गौतम चौधरी

इसरत जहां मुठभेड के बहाने एक बार फिर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को घेरने की योजना बनाई जा रही है। अहमदाबाद महानगर न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस0 पी0 तमांग की आख्या आते ही तिस्ता गिरोह पुन: सक्रिय हो गया है। तमांग की आख्या में कहा गया है कि इसरत जहां और उसके साथ मारे गये उसके तमाम साथी निर्दोष थे तथा गुजरात पुलिस ने कथित आतंकियों को मुम्बई से पकडकर लाई, दो दिनों तक अवैध पुलिस अभिरक्षण में रखी और फिर उसे मार कर मुठभेड दिखा दिया गया। न्यायमूर्ति तमांग की आख्या कहता है कि गुजरात पुलिस ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि कुछ अधिकारियों को मुख्यमंत्री के सामने अपना कद उंचा करना था। लेकिन इसरत मुठभेड के बाद सन 2004 में गुजरात पुलिस ने जो आख्या प्रस्तुत की वह न्यायमूर्ति तमांग की आख्या से बिल्कुल भिन्न है। उस आख्या में कहा गया है कि इसरत और उसके तमाम साथी पाकिस्तान समर्थित अति खतरनाक आतंकी संगठन लस्कर ए लोईबा के सदस्य थे और वे लस्कर के इशारे पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मारने अहमदाबाद आए थे। गुजरात पुलिस का यह भी दावा है कि पुलिस को इस बात की जानकारी केन्दीय गुफिया विभाग से प्राप्त हुई और खुफिया विभाग के निशानदेही के आधार पर ही इसरत ऑप्रेशन को अंजाम दिया गया। गुजरात पुलिस के द्वारा दी गयी आख्या की पुष्टि विगत दिनों केन्द्रीय गृह मंत्रालय के द्वारा राज्य सरकार को भेजे गए एक शपथ पत्र से भी होता है। उस सपथ पत्र में बाकायदा कहा गया है कि 15 जून, सन 2004 में पुलिस अभियान के दौरान मारे गये इसरत के साथ वे तमाम लोग आतंकवादी थे और लस्कर ए तोईबा के सक्रिय सदस्य थे। शपथ पत्र में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि लस्कर के मुख-पत्र गजबा से इस बात की पुष्टि होती है। गजबा नामक अखबर में क्या लिखा है इस बात का खुलासा न तो केन्द्र सरकार के किसी एजेंशी ने किया है और न ही गुजरात सरकार ने इस विषय पर कोई मुकम्मल तथ्य उपलब्ध करायी है लेकिन केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने इस बात को माना है कि उसके द्वारा एक सपथ पत्र गुजरात सरकार को भेजा गया है।

इन तमाम बिन्दुओं पर प्रकाश डालने से ऐसा लगता है इसरत मामले में बडा झोल है जो किसी स्वतंत्र संस्था के द्वारा जांच के बाद ही सामने आएगा लेकिन इसरत प्रकरण से दिल्ली एवं गांधीनगर की राजनीति में एक बार फिर से उबाल आ गया है। जहां एक ओर भारतीय जनता पार्टी अपने मुख्यमंत्री के पक्ष में उतर गयी है वही कांग्रेस और वाम दल मोदी को आदमखोर साबित करने की योजना में लग गये हैं। इस पेचीदे मुठभेड पर नि:संदेह एक बार फिर राजनीति की रोटी सेका जाना तय लग रहा है। लेकिन जो लोग इसरत प्रकरण को नरेन्द्र मोदी से जोड कर देख रहे हैं वे या तो गुजरात की वस्तिुस्थिति से अनभिग्य है या फिर वे किसी न किसी रूप से पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। मोदी, गुजरात और गुजरात की परिस्थिति को समझाने के लिए न केवल सन 2002 के दंगे पर ध्यान केन्द्रित करना होगा अपितु दंगे के पीछे की पृष्ठमूमि भी समझनी होगी। जो लोग सन 2002 के दंगे को सरकार संपोषित षडयंत्र मानते हैं वे भी गलत हैं।

गुजरात में हिन्दू मुसलमानों के बीच दंगा कोई नई बात नहीं है, लेकिन पहले दंगों में मुसलमान भारी पडते थे परंतु गोधरा कांड के बाद फैले दंगे में मुसलमान कमजोर पड गये। इसके पीछे दो कारण है एक तो पहले के अपेक्षा हिन्दू आक्रामक हुआ है। दूसरा दंगों में गुजरात प्रशासन का हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति है। इसे कोई आरएसएस से जोडे या फिर यह कहे कि यह गुजरात के भाजपा शासन द्वारा संपोषित षडयंत्र का प्रतिफल है तो वह उसकी मनोवृति हो सकती है लेकिन ऐसा देश भर में हुआ है। बिहार के भागलपुर के दंगे में भी ऐसा ही हुआ। भागलपुर के दंगे में मुसलमानों की तुलना में हिन्दू ज्यादा आक्रामक थे, साथ ही वहां के बहुसंख्यक हिन्दू अधिकारियों ने हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति दिखाई। आए दिन ऐसी परिस्थिति देश के कई भागों में देखने को मिल रहा है। देश के कई भागों में ऐसा देखा जाता है कि वह चाहे किसी पार्टी का नेता हो दंगे से समय हिन्दू हिन्दुओं के पक्ष में और मुसलमान नेता मुसलमानों के पक्ष में खडा हो जाता है। तो फिर गुजरात देश का अपवाद कैसे हो सकता है? यहां भी सन 2002 के दंगे में वही हुआ जो आए दिन देश के अन्य भागों में हो रहा है लेकिन सन 2002 का गुजरात दंगा कांग्रेस और साम्यवादी दलों के लिए मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक बडा हथियार साबित हुआ। देश की मीडिया ने भी गुजरात के दंगे को बेवजह तूल दिया। इस बजह से गुजरात ही नहीं देश के अन्य भागों के मुसलमानों में एक नए प्रकार का डर घर कर गया। इस डर का फायदा सीमा पर के दुश्मनों ने उठाया और देखते ही देखते पूरा भारत इस्लामिक आतंकवाद के जद में आ गया। सीधे साधे शब्दों में यह कहा जाये तो देश में इस्लामी आतंकवाद का विस्तार भारतीय मीडिया और प्रतिपक्षी राजनीति के नमारात्मक प्रयास का प्रतिफल है।

सन 2002 के दंगे के बाद गुजरात इस्लामी आतंकवाद के जद में आ गया। इस बात पर कम चर्चा होती है लेकिन दंगे के बाद गुजरात के सैंकडों हिन्दू नेताओं की हत्या हुई है। इसके अलावा लगभग 20 छोटी बडी आतंकी हमले गुजरात में हो चुके हैं। यह साबित करने के लिए काफी है कि दंगा में विश्वास करने वाली शक्ति अपनी रणनीति बदल ली है एवं वह अब हिन्दू नेतृत्व को अपना निशाना बना रही है साथ ही दंगा तो नहीं आतंकी हमला कर हिन्दुओं को मारने का कोटा पूरा किया जा रहा है। इस परिस्थिति में अगर केन्द्रीय गुप्तचर संस्था गुजरात पुलिस को कोई सूचना देती है तो उसपर कार्रवाई स्वाभाविक है। इसके अलावा इसरत अभियान में गुजरात और महाराष्ट्र दोनों राज्यों की पुलिस बराबर की हिस्सेदार थी तो फिर गुजरात पुलिस और गुजरात के मुख्यमंत्री को ही कठघरे में खडा करना कितना उचित है, इसपर विशद मीमांसा की जरूरत है।

हर मामले में मोदी और गुजरात को घसीटना आज देश की मीडिया के लिए मानो फैसन हो गया हो। अभी अभी उत्तराखंड और दिल्ली में फर्जी मुठभेड हुए हैं लेकिन किसी मीडिया समूह ने इस बात की चर्चा नहीं की कि वहां का मुख्यमंत्री आदमखोर है लेकिन मोदी को लगातार मीडिया यह साबित करने पर लगी है कि मोदी उल्पसंख्यकखोर हैं। इससे मीडिया का अभिजात्य, जातिवादी चेहरा उभरकर सामने आता है। वर्तमान समय में देश के अंदर एक खतरनाक साजिश हो रही है। देश के कुछ अभिजात्य परिवार, देश के सभी तंत्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाह रहे हैं। इन समूहों को इस काम में बहुत हद तक सफलता भी मिल चुकी है। देश का सर्वोच्च न्यायालय मानों कुछ परिवार के लिए आरक्षित कर दिया गया हो। यही हाल देश के कार्यपालिका का भी है। कार्यपालिका के आला पदों पर परिवारवाद जम कर हावी है। विधायिका में नरेन्द्र मोदी, कल्याण सिंह, उमा भारती, मायावती, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, येदुरप्पा, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, शरद यादव जैसे कुछ सामान्य लोगों की घुस पैठ हो गयी है जो देश की अभिजात्य शक्तियों को पच नही रही है और यही कारण है कि मोदी जैसे राजनेताओं को अपने परोये सभी का विरोध झेलना पडता है। अगर ऐसा नहीं है तो खुद गुजरात में कांग्रेस के शासनकाल में 10 से अधिक मुठभेड हुए उस पर प्रश्न क्यों नहीं खडा किया जाता है? कांग्रेस के नेता शंकर सिंह बाघेला के मुख्यमंत्रित्वकाल में लतीफ को मार गिराया गया था उस पर कांग्रेस या साम्यवादी दल क्यों नहीं बोलते? कुछ नहीं नरेन्द्र मोदी प्रतिपक्षी के अन्य किसी आघात से नहीं घबराते और चट्टान की तरह खडे हैं। साथ ही वे अभिजात्य गोष्ठि के सदस्य नहीं हैं क्यों कि मोदी अत्यंत पिछडी जाति से आते हैं। इस बात को न तो अभिजात्य मीडिया पचा पर रही है और न ही सत्ता पर हावी प्रभुता सम्पन्न लोग। यही कारण है कि मोदी हर समय सभी के टारगेट में रहते हैं। अब देखना यह है कि मोदी विरोधी गिरोह मोदी को पछाडता है या तमाम बाधाओं को पार कर मोदी राष्ट्रीय नेतृत्व की कमान झटक लेते हैं।

Sunday, September 20, 2009

आर्थिक अनुशासन या मुदो से भटकने की राजनीती - गौतम चौधरी

कांग्रेस पार्टी और केन्द्र सरकार आजकल एक नए अभियान में लगी है। गांधी के शिष्यों को लगभग 50 साल बाद एकाएक गांधी की याद आ रही है। विगत दिनों सरकार के सबसे प्रबुद्ध माने जाने वाले मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि देश में आर्थिक अनुशासन की जरूरत है और इस अनुशासन के लिए मंत्री तथा बडे अधिकारियों को पहल करन चाहिए। प्रणव दा ने न केवल कहा अपितु स्वयं इकॉनामी क्लास में हवाई यात्रा कर आर्थिक अनुशासन की प्रक्रिया प्रारंभ करने का प्रयास किया। देखा देखी कई मंत्रियों ने प्रणव दा का अनुसरण किया। स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने अपने खर्च में कटौती करने के लिए इकॉनामी क्लास में यात्रा की। कांग्रेस के द्वारा चलाए जा रहे नवीन तमाशों के बीच कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी ने दो कदम और आगे बढकर लुधियाना तक की यात्रा शताब्दी में कर डाली। राहुल की इस यात्रा ने मानो देश भर की मीडिया में भूचाल ला दिया हो। सभी अखबार ने अपनी सुखियां इसी खबर से बना डाली। दूरदर्शन वाहिनी वाले लगातार चीखते रहे कि राहुल ने अदभुद काम कर दिया और वे महात्मा गांधी से मात्र एक कदम ही पीछे रह गये हैं।
कांग्रेस के आर्थिक अनुशासन के अभियान की हवा पार्टी के नेताओं ने ही निकाल दी है। विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने तो इकानोमिक क्लास की यात्रा को पशुओं की यात्रा बताकर कांग्रेस के आन्तरिक मनोभाव को प्रगट कर दिया है। लेकिन कांग्रेस और केन्द्र सरकार इस अभियान को आगे बढाने की योजना में है। इस योजना से देश का मितना भला होगा या आर्थिक अपव्यय पर कितना अंकुश लगेगा, भगवान जाने, लकिन जिस प्रकार कंपनी छोट कलेंडर भारी जैसे कहावत की तरह कांग्रेसी इस अभियान को प्रचारित कर रहे है उससे तो इस पूरे अभियान से एक भयानक राजनीतिक षडयंत्र की बू आ रही है। एक हिसाब लगाकर देखा जाये तो कांग्रेस के मंत्रियों के पास अरबों की बेनामी चल अचल संपत्ति है। स्वयं सोनिया जी ऐसी कई संस्थाओं की प्रधान हैं जो स्वयंसेवी संगठन के नाम पर प्रति वर्ष करोडों की उगाही करता है।
ऐसे ही दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला जी का मामला है। कांग्रेस के लगभग सभी बडे नेताओं के पास अरबों की संपति है। हां, प्रणव दा या ऐ0 के0 एन्टेनी जैसे कुछ नेता हैं जो आम जनता की तरह जीते हैं। यह वही कांग्रेस है जिसके नेता आज भी गांव-गांव में नव सामंत की भूमिका में हैं। केवल इकानोमिक क्लास के हवाई यात्रा मात्र से आर्थिक अनुशासन संभव नहीं है। इसके लिए अन्य और कई उपाय करने की जरूरत है। कांग्रेस का चरित्र सदा से दोहरा रहा है। सच तो यह है कि देश में लगातार महगाई बढ रही है, देश आर्थिक दृष्टि से कंगाल हो रहा है, नक्सलवाद धीरे धीरे अपना विस्तार बढ रहा है तथा चीन एवं पाकिस्‍तान सीमापार सामरिक मोर्चा खोलने के फिराक में है। ऐसी पस्थिति में अब केन्द्र सरकार क्या करे? इसलिए कुछ ऐसी बात जनता के सामने तो रखनी पडेगी जो जनता को प्रभावित करे तथा देश के मुख्य मुद्दों से जनता का ध्यान हटाता रहे। ऐसे ही कुछ दिनों तो स्वाईन फ्लू का फंडा चला, अब जब वह शांत हुआ तो नया फंडा अया, आर्थिक अनुशासन का। महंगाई बढ रही है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, सुरक्षा की ऐसी तैसी हो रही है। जब रेल यात्रा के दौरान राहुल स्वयं सुरक्षित नहीं हैं तो फिर आम आदमी की सुरक्षा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। इस परिस्थिति में कांग्रेस तथा केन्द्र सरकार को वास्तविक विषय पर ध्यान केन्द्रित करनी चाहिए, न कि फंतासी प्रचार में अपना समय और पैसा अपव्यय करना चाहिए।
अभी संसदीय चुनाव के बाद कांग्रेस अपने गठबंधन के साथ फिर से सत्ता में लौटी है। सरकार ने 100 दिनों की कार्य योजन भी बनाई। उसपर कितना काम हुआ, सरकार को अपने मातहत महकमों को पूछना चाहिए, क्योंकि जनता यह जानना चाहती है। यह कौन नहीं जानता कि मंत्री या अधिकारियों को जब विदेश भ्रमण की इच्छा होती है तो वे विदेश भ्रमण की सरकारी योजना बना लेते हैं। मंत्री और अधिकारी मुर्गी पालन, भेड पालन, सूअर पालन, न जाने किन किन विषयों का प्रशिक्षण लेने विदेश जाते हैं। इन तमाम बिन्दुओं पर पहले सरकार जांच बिठाए, फिर पता लगाये कि मंत्री या अधिकारियों के उक्त भ्रमण से देश या समाज को कितना लाभ हुआ है। अगर लाभ शून्य है तो उन मंत्रियों और अधिकारियों पर भ्रमण के दौरान हुए व्यय की वसूली की जाये, लेकिन ऐसा करेगा कौन। क्योंकि इससे तो फिर काम होने लगेगा। काम तो इस देश में होना नहीं चाहिए, हां, राजनीति जरूर होनी चाहिए, सो हो रही है। सच्च मन से कांग्रेस आर्थिक अनुशासन चाहती है तो कांग्रेस को फिर से पुनर्गठित करने की जरूरत है। क्या सोनिया जी कांग्रेस के पुनर्गठन का साहस दिखा पाएंगी?

चीन से डरने की नही लारने की जरुरत - गौतम चौधरी

चीन लगातार भारत के घेरेबंदी में लगा है। इस घेरेबंदी का एकमात्र लक्ष्य भारत को कमजोर करना है। नेपाल में हुरदंगी समूह माओवाद का समर्थन, अरूणाचल पर अधिकार जताना, अरब सागर और बंगाल की खाडी में चीनी हस्तक्षेप यह साबित करने के लिए काफी है कि चीन भारत का हित नहीं सोच रहा है। चीन भारत का हित सोच भी नहीं सकता है क्योंकि वहां दो प्रकार का विस्तारवादी चिंतन हावी है। पहला दुनिया का सबसे खतरनाक अवसरवादी जातीय चिंतन हानवाद का विस्तार और और दूसरा सेमेटिक सोच पर आधारित ईसाइयत से प्रभावित साम्यवादी का प्रभाव। इन दोनों चिंतनों के अबैध संबंधों पर आधारित चीन आज दुनिया के लिए एक नए प्रकार का खतरा उत्पन्न कर रहा है। चाहे वह हानवादी विस्तारवाद हो या फिर साम्यवादी साम्राज्यवाद, दोनों ही चिंतन दुनिया को तीसरे महायुद्ध की ओर ले जाने वाला है।
चीनी रणनीति के जानकारों का कहना है कि चीन इस्लामी दुनिया की ओर हाथ बढ रहा है। इस बात की चर्चा लगभग 90 साल पहले भारतीय स्वातंत्र समर के दौरान महान क्रांतिकारी बिपिन चन्द्र पाल के द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक हिन्दू रिव्यू में की गयी है। साथ ही श्री पाल ने अपनी भविष्यवाणी में यह भी जोडा है कि सम्भव है कि आने वाले समय में भारत के लिए यूरप के देश दोस्त की भूमिका में हों लेकिन चीन और इस्लामी दुनिया का गठजोड अन्ततोगत्वा भारत के खिलाफ जाएगा। आज चीन जिस ओर बढ रहा है उससे तो स्व0 बिपिन चन्द्र पाल की भविष्यवाणी सही साबित हाती दिखाई दे रही है। एक बार संयुक्त प्रजातांत्रिक गठबंधन सरकार के प्रतिरक्षा मंत्री और समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस ने चीन के चालों का मुखर विरोध करते हुए कहा था कि जिस देश के प्रत्येक चौक चौराहों पर फालतू चीनी व्यंजन बिकने लगा है उस देश को पाकिस्तान से नहीं चीन से सतर्क रहने की जरूरत है।
आज एक बार फिर भारत, चीन के निशाने पर है। चीनी सैनिक भारतीय सीमा का लगातार अतिक्रमण कर रहे हैं। चीनी जासूस पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यमार, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान जैसे भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में सक्रिय हो रहा है। इन देश में एक नये प्रकार के भारत विरोध को हवा देने की चीनी चाल सफल हो रही है। नेपाल में हिन्दी विरोध को इसी परिप्रेक्ष्य में लिया जाना चाहिए। भारतीय कूटनीति के द्वारा तिब्बत को चीनी साम्यवादी संघ का अभिन्न अंग मान लेने के बाद भी चीन इस बात से सहमत नहीं है कि अरूणाचल प्रदेश भारतीय संघ का हिस्सा है। लेह, लद्दाख, और सियाचीन का हवाई अड्डा चीनी सामरिक रणनीति के जद में है। विगत दिनों चीन ने अन्तरराष्ट्रीय आदर्श का अतिक्रमण करते हुए बयान दिया कि दलाई लामा का अरूनांचल यात्रा चीन में अलगाववाद को हवा देने के लिए एक सोची समझी रणनीति का नतीता है, और दलाई लामा की अरूणांचल यात्रा की छूट देकर भारत ने चीन के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप किया है। चीन जब पाकिस्तान के द्वारा प्रदत्त भारतीय भूमि पर सामरिक उपयोग के लिए सडक बनाता है तो वह अन्तरराष्ट्रीय कानून का उलंघन नहीं होता है लेकिन दलाई लामा एक नेक काम के लिए अरूणाचल जाते हैं तो वह चीन के गृह मामले में हस्तक्षेप की श्रेणी में आता है। यह चीन का कानून है जिसे भारत को मानना पडेगा क्योंकि चीन एक प्रभू राष्ट्र है तथा भारत उसके सामने कमजोर। भारत दलाई लामा को सुरक्षा प्रदान करने का बचन दिया है। यह भारती की विदेश नीति का अंग है। ऐसा भारत का इतिहसा रहा है। दुनिया जब जापान को परेशान कर रही थी तो दुनिया के प्रभू राष्ट्रों का विराध करते हुए भारत ने जापान का समर्थन किया। खुद चीन में साम्यवाद की स्थापना के बाद सबसे पहले भारत ने मान्यता उसे एक देश के रूप में मान्यता प्रदान किया। संयुक्त राष्ट्र संघ में भी भारत के समर्थन से ही चीन सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बन पाया। पाकिस्तानी अत्याचार से बांग्लादेश को मुक्त कराने में भारत की भूमिका को दुनिया जानती है। नेपाल में बरबर राणाशाही की सामाप्ति में भारत ने अभूतपूर्व भूमिका निभाई । भारत की विदेशनीति है कि दुनिया में किसी भी जाति, धर्म, समूह, संप्रदाय के लोगों पर अत्याचार नहीं होना चाहिए। तिब्बत के लोगों को न्याय दिलाना भारतीय लोकतांत्रिक संघ का घोषित ध्येय है। अब दलाई लामा धार्मिक काम से अरूणाचल जा रहे हैं तो चीन की आपति क्यों? चीन बिना भारत को बताये और विश्वास में लिए भारतीय सीमा पर सैन्य उपयोग के लिए सडक बनाया, पाकिस्तान में बंदरगाह के आधुनीकिकरण में चीन पैसा लगा रहा है, चीन सामरिक उपयोग के लिए बांग्लादेश में बंदरगाह विकसित कर रहा है। यही नहीं क्षद्म रूप से चीन तालिबान, पूर्वोतर के खुंखार आतंकी संगठन एनएससीएन, श्रीलंका तथा दक्षिण भारत में सक्रिय लिट्टे, भाारत के विभिन्न भागों में फैले माओवादी चरमपंथी समूह आदि कई भारत विरोधी आतंकी संगठनों को वित्तीय, हथियार और खुफिया सहायता उपलब्ध करा रहा है। सब कुछ जानते हुए भारत ने कभी चीन को यह नहीं कहा कि वह भारत के खिलाफ षडयंत्र कर रहा है, लेकिन दलाई लामा अरूणांचल जाना चीन को बरदास्त नहीं है।
इन तमाम घटनाओं और चीनी चालों से साबित होता है कि चीन भारत के खिलाफ जंग की तैयारी में लगा है। चीन को यह लग रह है कि भारत को परास्त करने के बाद वह दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर सकता है। इसलिए वह भारत पर आक्रमण की रणनीति बना रहा है। भारत को घेरने के लिए चीन न केवल सामरिक संतुलन बैठा रहा है अपितु भारत के अंदर एक ऐसे बुध्दिजीवियों को भी खडा कर रहा जो यह प्रचारित करे कि चीन भारत का नहीं अपितु भारत में सक्रिय प्रभू वर्ग का दुश्मन है। चीन की योजना के आधार पर कुछ बुध्दिजीवी सक्रिय भी हो रहे हैं। यह आज से नहीं चीन में स्थापित साम्यवादी व्यवस्था के समय से ही हो रहा है। पं0 सुन्दरलाल नामक एक कूटनीतिक अपने आलेख में लिखते हैं कि सन 62 की लडाई में चीन ने नहीं अपितु भारतीय सेना ने चीन पर आक्रमण कर दिया। चीनी फौज तो सराफत से भारतीय सेना का सैन्य आयुद्ध छीन उसे बिना कुछ कहे ससम्मान भारत लौट आने दिया था। सुन्दरलाल जो अपने आप को चीनी युद्ध के समय का महान राजनैयिक बता रहे हैं उन्होंने एक आलेख लिखा है। वह आलेख मेनस्ट्रीम नामक पत्रिका में 4 नवम्बर सन 1972 में प्रकाशित हुआ। सुन्दरलाल जी के आलेख को फिर से वीर भारत तलवार ने अपनी पुस्तक नक्सलबाडी के दौर में छापा है। इस आलेख के प्रकाशन का एक मात्र ध्‍येय यह साबित करना है कि चीन तो अपने जगह ठीक ही है भारत पश्चिमी देशों के अकसावे पर एक आक्रामक राष्ट्र की भूमिका अपना रहा है। यही नहीं चीन में नियुक्त भारत के राजदूत का भी सुर बदला हुआ है। भारतीय मीडिया लगातार यह कह रही है कि चीन भारत की ईंच दर ईंच जमीन हथिया रहा है लेकिन भारत के राजदूत इसे सरासर झूठ बता रहे हैं। वे चीन के सुर में सुर मिलाकर कहते हैं कि भारतीय मीडिया पश्चिमपरस्त हो गयी है। यह चीन और भारत को नाहक में लडाना चाह रही है। लेकिन जो लोग चीनी करतूत को देख कर आए हैं। जो लोग सीमा पर चीनी सैन्य हरकतों को पहचान रहे हैं उनकी बातों को कैसे झुठलया जा सकता है।
एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि पाकिस्तानी सीमा पर तैनात सैनिकों को चीनी सीमा पर तैनान करने की रणनीति संयुक्त राज्य अमेरिका की है। इससे पकिस्तान अपनी पूरी ताकत से तालिबान के खिलाफ लड पाएगा। इस तर्क में भी दम है। इसे अगर मान भी लिया जाए तो हर्ज क्या है। मध्य एशिया में सक्रिय पश्चिम की कूटनीति से भारत को फायदा उठाना ही चाहिए। तालिवान के सहयोग का पाईपलाईन काटने के लिए अमेरिका की रणनीति है कि चीन को भारत के साथ उलझाया जाये लेकिन आज न कल तो चीन भारत के साथ उलझेगा ही। अभी अमेरिका के साथ चीन की स्पर्धा शीत युद्ध में बदल की स्थिति में आ गया है। भारत को इसका लाभ उठाकर चीन पर दबाव बनाना चाहिए। मध्य एशिया में पश्चिमी हित से चीनी हित के टकराहत को भारत अपने भविष्य की कूटनीति बना सकता है। हालांकि यह तर्क चीन समर्थित मीडिया के द्वारा फैलाया गया एक भ्रम भी हो सकता है।
चीन भारत के अर्थतंत्र को खोखला करने के लिए जाली नोट के रैकेट को बढावा दे रहा है। चीन तमिल छापामारो के द्वारा चेन्नई में ड्रग हब विकसित करने फिराक में है। इसके कई प्रमाण मिले हैं। तमिल छापामार आजकल चीनी जासूसों के संपर्क में है। भारत के पास इस बात का पक्का प्रमाण है कि चीन दक्षिण पूर्वी एशिया के एक बडे भूभाग में उत्पन्न अफीम को अबैध तरीके से परिशोधित कर ड्रग बनाता है। हालांकि खुलम खुल्ला तो नहीं लेकिन चीनी माफिया इस ड्रग को अफ्रिका और यूराप के देशों में ले जाते हैं। करोडों के इस कारोबार में अब तमिल छापामार भी शमिल हो गया है। चीन ड्रग के द्वारा प्राप्त आमदनी दुनियाभर में अपने हितों के लिए आतंकवादी संगठनों में बांटता है। इसी प्रकार अबैध हथियारों के धंधे में चीन लगा है। भारत या दक्षिण एशिया में सक्रिय आतंकी समूहों को चीन लगातार हथियार उपलब्ध करा रहा है। विगत दिनों नकली दवा की एक बडी खेप चीन से अफ्रिकी देशों के लिए भेजा गया। दवाओं पर मेड इन इंडिया लिखा था। जांच के बाद पता चला कि यह दवा चीन के द्वारा भेजा गाया है। इस प्रकार चीन भारत को घाटा पहुंचाने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहता है।
ऐसी पस्थिति में चीन के खिलाफ भारत की क्या रणनीति होनी चाहिए और चीन को किस प्रकार घेरना चाहिए इसकी मुकम्मल योजना तो भारत को बनाना ही होगा। भारतीय कूटनीति वर्तमान चीनी ऐग्रेशन पर चीन के खिलाफ कूटनीतिक मोर्चा नहीं खोला तो चीन भारत को हडप लेगा। तब भारत अन्य चीनी प्रांतों के तरह केवल आंशू बहाने के अलावा और कुछ भी नहीं कर पाएगा। चीन जितना भयावह दिखता है उतना भयावह है नहीं। भारत उसे परास्त कर सकता है। याद रहे ड्रैगन के जबरे और चंगुत जरूर मजबूत होते हैं लेकिन ड्रैगन के रीढ की हड्डी कमजोर होती है। वह जितना देखने में खतरनाक लगता है उतना होता नहीं है। फिर ड्रैगन नामका कोई जीव धरती पर अब जीवित नहीं है। यह एक काल्पनिक अवधारना है। इस काल्पनिक भय को वास्तविक ताकत से ही जीता जा सकता है। भारत कमर कसे ड्रैगनी राक्षस को समाप्त करने के लिए दुनिया भारत के साथ होगी। दावे के साथ कहा जा सकता है कि चीन भारत की लडाई साधारण लडाई नहीं होगी। यह दुनिया का तीसरा महायुद्ध होगा और जिस प्रकार दूसरे महायुद्ध के बाद इजरायल को अपनी खोई भूमि मिली थी उसी प्रकार इस युद्ध में तिब्बत को अपनी खोई भूमि मिलेगी। भारत को तो मात्र इस युद्ध की अगुआई करनी है।

इसरत प्रकरण के बहाने नई राजनीति की सुगबुगाहट-गौतम चौधरी

गुजरात उच्च न्यायालय ने इसरत जहां केस में राज्य सरकार को स्टे दे दिया है। बावजूद इसके राजनीति तो होनी ही है, क्योंकि मामला गुजरात सरकार से संबंधित है और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी को केवल भाजपा के प्रतिपक्षी ही नहीं कुछ अपने लोग भी घेरने के फिराक में हैं। उन लोगों के लिए इस प्रकार का मामला ज्यादा महत्व रखता है। अब देखना यह है कि प्रमुख प्रतिपक्षी और मोदीवाद के घुर आलोचक कांग्रेस, इस मामले को लेकर क्या रणनीति अपनाती है।
प्रेक्षकों का मानना है कि लोकसभा चुनाव तथा राजकोट महानगर पालिका में हुई भाजपा की भारी हार के बाद मोदी परेशान हैं। उपर से इसरत प्रकरण ने मोदी को और दबाव में ला दिया है, ऐसी संभावना स्वाभाविक है। मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि मीडिया का एक खास वर्ग उन्हें राक्षस के रूप में प्रचारित कर रहा है। उन समाचार माध्यमों के लिए इसरत प्रकरण मजबूत हथियार साबित हो रहा है। ऐसे में नरेन्द्र भाई कौन सी चाल चलते हैं यह एक अहम प्रश्‍न है। भाजपा के अंदर हुए उठा पटक और कई प्रकार के विवाद के बाद मोदी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन राव भागवत से मिलना, फिर संघ के नजदीकी माने जाने वाले डॉ0 मुरली मनोहर जोशी का मोदी के साथ वार्ता यह साबित करने के लिए काफी है कि अब मोदी का गुजरात अभियान समाप्ति की ओर है। केन्द्र में मोदी की अहमियत बढ रही है। साथ ही भाजपा के पास ऐसी कोई छवि नहीं है जो देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं को एक बार फिर से जोड सके। ऐसी परिस्थिति में मोदी केन्द्रीय अभियान पर निकलने की रणनीति बना रहे हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए।
अब सवाल यह उठता है कि क्या इसरत मुठभेड प्रकरण मोदी की भावी राजनीति तय करने वाली होगी या सोहराबुद्दीन प्रकरण के तरह ही मोदी इस केस को भी एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर लेंगे? इन तमाम सवालों के घटाटोप में एक बार फिर गांधीनगर से लेकर दिल्ली तक की राजनीति में उष्‍णता महसूस की जा रही है। अब क्या होगा, गुजरात के मुख्य प्रधान की कुर्सी खतरे में है या फिर इस प्रकरण से भी वे उबर जाएंगे, ऐसे कई सवाल राजनीति के गलियारे में तैरने लगे हैं। फिलहाल न्यायालय को राजनीति का अखाडा बनाने के फिराक में प्रतिपक्षी जोर आजमाइस में लगे हैं। खबर का एक पहलू यह भी है कि आखिर एकाएक महानगर न्यायालय के न्यायाधीश की आख्या को सार्वजनिक क्यों कर दी गयी? सवाल गंभीर है और इसका जवाब किसी के पास नहीं है। तमांग के पास जाने वाले तमाम पत्रकारों को खाली हाथ ही लौटना पडा है। वे कुछ भी कहने से इन्कार कर हरे हैं।
इधर इसरत समर्थक समूह एकाएक हडकत में आ गया है। समूह अखबार से लेकर राजनीति तक को झकझोर रहा है। पत्रकार वार्ताएं हो रही है। समूह के मुखिया और पूर्व अवकास प्राप्त पुलिस महानिदेशक आर0 बी0 श्रीकुमार चीख-चीख कर कह रहे हैं कि गुजरात सरकार ने न केवल फर्जी मुठभेड करवाए अपितु सरकार के प्रवक्ता ने न्यायालय की अवमानना भी की है। न्यायालय की अवमानना पर तो न्यायालय को संज्ञान लेना अभी बांकी है लेकिन एक साथ कई मोर्चों का खुलना और उन मोर्चों पर स्वयंभू सिपहसालारों की मार्चेबंदी का कुछ रहस्य तो जरूर होगा। इस बार गुजरात सरकार भी ज्यादा उत्साहित नहीं है। मामले की गंभीरता को समझकर सरकार अपनी रणनीति बना रही है। सरकारी प्रवक्ता और काबीना मंत्री जयनाराण व्यास ने एक और खुलासा करते हुए कहा कि मात्र 20 दिनों के अंदर 600 पृष्टों की रिपोर्ट कैसे तैयार हो गयी? फिर इस रिपोर्ट के साथ ऐसी क्या बात है कि इतनी जल्दबाजी की गयी? श्री व्यास का कहना है कि मामला पेंचीदा है और मामले को साधारन तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए। व्यास को माननीय न्यायालय के द्वारा प्रस्तुत आख्या में राजनीति की गंध आ रही है। सरकारी प्रवक्ता ने न्यायालय की मंशा पर सीधे-सीधे आरोप तो नहीं लगाया है लेकिन कई प्रश्‍न ऐसे खडे किये जो रिपोर्ट की त्रुटि को इंगित करता है।
इसरत केस पर मानवाधिकारवादी और केस लड रहे समर्थकों को छोड कर कोई बडी राजनीतिक पार्टी खुल कर सामने नहीं आ रही है। इससे भी ऐसा लगता है कि अंदर खाने कोई नई रणनीति बनायी जा रही है। रणनीति का सूत्रधार कौन है और उस रणनीति के काट के लिए भारतीय जनता पार्टी और राज्य सरकार कौन सी रणनीति बना रही है यह तो भविष्य बताएगा लेकिन वर्तमान तमांग की रिपोट ने सत्ता पक्ष तथा प्रतिपक्ष को अपने अपने दायरे का हथियार तो दे ही दिया है। इस हथियार से कितनी लडाई लडी जाएगी, और लडाई का क्या प्रतिफल होगा इसपर अभी मीमांसा बांकी है लेकिन प्रकारांतर में गुजरात की राजनीति में इसरत केस का अध्याय कोई न कोई गुल जरूर खिलाएगा।

Saturday, August 29, 2009

जेहादियों के सामान ही खतरनाक हँ मओबाद - गौतम चौधरी

उडीसा में चरम वामपथियों ने नल्को बाक्साईड खादान पर आक्रमण कर 14 औद्योगिक सुरक्षा गार्ड के जवानों को मौत के घाट उतार दिया। बिहार और झारखंड में कम से कम 02 सुरक्षा कर्मियों को नक्सली हिंसा का शिकार होना पडा है। 15 वीं लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण में माओवादी उत्पात के कारण कम से कम 12 सुरक्षाकर्मियों सहित 18 लोगों की मौत हो गयी। माओवादियों ने आम चुनाव वहिष्कार की घोषणा की थी। छतीसगढ में सलवाजुडूम के प्रभावशाली नेता के भाई की हत्या कर दी गयी। कुल मिलाकर देखा जाये तो इस्लामी जेहादी आतंकवाद के समानांतर ही वामपंथी चरमपंथी देश और समाज को क्षति पहुंचा रहे हैं। बावजूद इसके वाम चरमपंथियों पर न तो सरकार शख्त है और न ही भारत का समाचार जगत ही यह मानने को तैयार है कि नक्सली हिंसा भी आतंकवाद के दायरे में आता है। यह ठीक नहीं है और आने वाले समय में देश की संप्रभुता के लिए यह सबसे बडी चुनौती साबित होने वाली है। विगत दिनों मीडिया जगत में आतंकवाद के प्रति दृष्टिकोण में भारी अन्तर आया है। मीडिया का एक बडा समूह यह मान कर चलता था कि बाबरी ढांचा ढहाए जाने या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के खडे होने से मुस्लिम समाज का एक बडा तबका असंतुष्ट है और यही कारण है कि भारत में इस्लामी जेहादी आतंकवाद का दायरा धीरे धीरे बढता जा रहा है, लेकिन इस सिध्दांत को तूल देने वाले अब बगल झांकने लगे हैं। आम मीडियाकर्मी इस सिध्दांत से सहमत नहीं है। मीडिया का एक बडा वर्ग अब यह मानने लगा है कि इस्लाम का चरम चिंतन ही इस्लामी समाज के नैजवानों को आतंक के लिए उकसाता है। इस सोच को मुम्बई हमले के बाद और बल मिला है। हालांकि मुम्बई हमले पर भी देश के कुछ बुध्दिजीवियों ने आम मीडिया कर्मियों की राय बिगारने में अपनी सक्रियता दिखाई। आनंद स्वरूप वर्मा और अजीज बर्नी जैसे पत्रकार ने तो मुम्बई हमले में पाकिस्तान को क्लिन चिट दे दिया लेकिन आम मीडियाकर्मी इस बात से सहमत नहीं हुआ कि मुम्बई हमला हिन्दुवादी संगठनों के साजिस का प्रतिफल है। इस बार हिन्दुवादी संगठनों को बदनाम करने वाली ताकत बेनकाब हो गयी और लाख चीखन के बाद भी राजेन्द्र यादव का गिरोह यह साबित करने में नामाम रहा कि मुम्बई हमले के पीछे आरएसएस लॉबी था।जिस प्रकार इस्लामी जेहादी आतंक के प्रति देश का मानस तेजी से बदला है उसी प्रकार मीडिया में इस बात के प्रचार की जरूरत है कि माओवादी आतंकवाद भी उतना ही खतरना है जितना इस्लामी जेहादी। मीडिया जगत और देश की सरकार को स्वीकारना लेनी चाहिए कि वामपंथी आतंक गरीबी और अमीरी की बढती खाई के कारण नहीं अपितु देश को अस्थिर करने वाली तथा विदेशी पैसों के द्वारा खडा किया गया एक कृत्रिम आतंकी ढांचा है जिससे गरीबों का कल्याण तो नहीं ही होगा उलट देश के कई टुकरे हो जाएंगे और भारतीय उपमहाद्वीप लंबे समय तक के लिए अशांत हो जाएगा। जेहादी आतंकी और चरम वामपंथियों में बेहद समानता है। इस बात से सहमती जताई जा सकती है कि किसी जमाने में एक पवित्र मकसद को लेकर कुछ नैजवाने ने बंदूक उठा लिया और जंगल चले गये, लेकिन नक्सलियों की वह पीढी समाप्त हो गयी है। अब वे लक्ष्य विहीन बदमाशों की टोली मात्र बन कर रह गये हैं। चौकाने वाली बात तो यह है कि चरम वामपथी संगठनों में अरबों रूपये चंदा का आता है लेकिन उसका कोई लेखा जोखा नहीं होता है। लेवी के नाम पर रंगदारी टैक्स का क्या किया जाता है उसका कही कोई हिसाब नहीं है इन संगठनों के पास। नक्सली नेताओं के बच्चे विदेश में पढ रहे हैं और आम वाममार्गी कार्यकर्ता आज भी बंदूक ढो रहे हैं। कुल मिलाकर भूमिगत साम्यवादी चरमपंथी संगठनों में विकृति और अराजकता का बोलबाला है। ये पैसे लेकर वोट बहिष्कार करते हैं और जिस पार्टी या व्यक्ति से पैसा मिलता है उसके लिए बूथ भी छापते हैं। इसके कई प्रमाण बिहार और झारखंड में देखने को मिला है। अब तो माओवादी समूह ईसाई मिशनरियों के इशारे पर काम करने लगा है। विगत दिनों उडीसा के संत लक्ष्मणानंद की हत्या में माओवादियों ने स्वीकरा की संत हिन्दुओं को भरकाता था इसलिए उसकी हत्या कर दी गयी। यह साबित करता है कि संत के खिलाफ वहां की जनता नहीं थी अपितु धर्म की खेती करने वाले ईसाई पादरियों के आंख में संत खटक रहे थे। यही कारण था कि संत की हत्या मिशनरियों के इशारे पर माओवादियों ने करयी। देश में ऐसे कई उदारण है जो माओवादियों को कठघरे में खडा करता है। यह साबित करने के लिए काफी है कि माओवादी अपने मूल सिध्दांत से भटक गये हैं और जिस प्रकार इस्लामी चरमपंथी जेहाद शब्द की गलत मिमांशा में लगे हैं उसी प्रकार साम्यवादी चरमपंथी भी वर्ग संघर्ष की गलत व्याख्या कर भोली भाली जनता को न केवल उकसाते है अपितु उसका शोषण भी करते हैं।इस विषय पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए कि जेहादी आतकियों का सबसे बडा केन्द्र अफगान और पाकिस्तान में चीनी जासूस सक्रिय है। तालिबान, अमेरिकी युध्द के बाद कमजोर हो गया था लेकिन चीनी सहायता और पाकिस्तानी प्रशिक्षण ने उसे फिर से जिन्दा कर दिया है। जेहादी आतंकियों का नया क्लोन चीन में तैयार हो रहा है। इन आतंकियों को पहले रूस ने संपोषित किया, फिर रूस के खिलाफ अमेरिका ने उन्हें अपना हथियार बनाया और आज विश्व में अपना दबदबा बढाने के लिए चीन जेहादियों को हवा दे रहा है। माओवादी चरमंथी भी चीन की ही देन है। भारत में माओवादी चरमपंथी, ईसाई मिशनरी और जेहादी आतंकी एक ही योजना पर काम कर रहे हैं। सेमेटिक चिंतन समूह की योजना से भारतीय उपमहाद्वीप को अफ्रिका बनाने का प्रयास किया जा रहा है और चीन इस पूरे षडयंत्र का नेतृत्व कर रहा है। भारत की कूटनीति और विदेश नीति के साथ ही आन्तरिक सुरक्षा की नीति में माओवादी आतंकवाद को भी जेहादी आतंकवाद की श्रेणी में लाया जाना चाहिए। जिस प्रकार देश की मीडिया ने जेहादी आतंकियों को नकार दिया है उसी प्रकार मीडिया को माओवादी आतंकवाद के प्रति भी अपनी स्पष्ट नीति बनानी होगी। हां मिशनरियों के सेवा भाव के कारण और मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को ध्यान में रखकर उसके खिलाफ नकारात्मक दृष्टिकोण रखना ठीक नहीं होगा लेकिन ईसाई मिशनरियों के आय-ब्यय पर गंभीर नजर रखने की जरूरत है। याद रहे जहां जहां ईसाई मिशनरियों की पहुंच बढी है वहां आज माओवादी षडयंत्र सहज देखा जा सकता है। भारत की जासूसी संस्था से मिले संकोतों में इस बात का स्पष्ट जिक्र किया गया है कि माओवादी संरचना भारतीय लोकतंत्र, भारतीय जीवन पध्दति, भारत के सार्वभौमिकतावादी सोच से अलग है। माओवादी यह भी मानने को तैयार नहीं है कि भारत एक राष्ट्र है। वे भारत को कई संस्कृतियों का समूह मानते हैं और सोवियत रूस की तरह भारत को एक साम्यवादी संघीय ढाचे में ढालना चाहते हैं। हालांकि माओवादियों के लिए चीन प्रेरणा का श्रोत रहा है लेकिन चीन की भौगोलिक परिस्थिति और सामाजिक संरचना भारत से भिन्न है इसलिए साम्यवादी चरमपंथी भारत को साम्यवादी संघीय ढांचा देना चाहते हैं लेकिन इससे पहले वे टुकरों में बांच कर भारत पर कब्जे की योजना बना रहे हैं। यह खतरनाक है। टुकरों में बटने के बाद उपमहाद्वीप में कितना रक्तपात होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। फिलवक्त विदेशी ताकत इस बात पर एक मत है कि पहले भारत के वर्तमान ढंचे को ढाहा जाये। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में माओवाद या फिर जेहादी आतंकवाद का कही कोई स्थान नहीं है लेकिन माओवादी चरमपंथी इससे सहमत नहीं हैं। वे लगातार इस योजना पर काम कर रहे हैं कि भारत का विभाजन हो और भारत का लोकतंत्रात्मक संघीय ढांचा ध्वस्त हो जाये। फिर भारत को अपने ढंग से ढालने में सहुलियत होगी। जोहादी समूह भी कामोबेस यही चाहता है। जहां जेहादी एक खास संप्रदाय को अपना हथियर बनाया है वही चरम वामपंथियों ने एक विचार का चोला ओढ कर भारत में षडयंत्र कर रहा है।
इस पूरी योजना को समझकर जिस प्रकार भारतीय मीडिया ने जेहादी आतंकियों के प्रति रवैया अपनाया है उसी प्रकार माओवादी चरमपंथियों के प्रति भी अपनाने की जरूरत है। चाहे चरमपंथ किसी का हो उसके प्रति सहज संवेदना रखना भारत के लोकतंत्रात्मक मूल्यों के साथ अपराध करना है। हम एक सफल लोकतंत्रात्मक गणतंत्र में जी रहे हैं। यहां हर को अपनी बात रखने और अपने ढंग से काम करने, पूजा करने का अधिकार प्राप्त है। इस स्वतंत्रता को कोई छीनता है तो उसका डटकर विरोध होना चाहिए। साम्यवाद गरीबी और अमीरी की लडाई का चिंतन नहीं है। याद रहे यह विशुध्द भौतिकवादी चिंतन है। यह चिंतन भी उतना ही खतरनाक है जितना जेहादी आतंकवाद।