Friday, April 10, 2009

मिथिला का अत्यन्त प्राचीन एवं महनीय परम्परा

र्यावर्त में मिथिला का अत्यन्त प्राचीन एवं महनीय परम्परा रहीहै । वैदिक आर्य प्रायः सप्तसिन्धु प्रदेश तक ही सीमित थे । किन्तु, उत्तर वैदिक काल के प्रारम्भ में ही आर्य मिथिला क्षेत्र में आ चुके थे । लगभग ज्ञण्ण्र्ण्र् इ.पू. लिखित शतपथ ब्राहृमण की बहुश्रुत कथा के अनुसार विदेह माथव के नेतृत्व में ऋषिप्रवर पुरोहित गौतम रहुगण के साथ र्सवप्रथम सदानीरा -गण्डकी) को पारकर तत्कालीन निर्जन सघन वन प्रदेश में अग्नि स्थापन कर 'यज्ञिय पद्धति' से इस क्षेत्र को जनावास योग्य बनाया तथा यज्ञिय परम्परा से संयुक्त हुआ । अग्नि आर्य संस्कृति का प्रतीक माना गया है । तभी से वनाच्छादित यह प्रदेश विदेध अथवा विदेह कहलाने लगा । वसाढÞ -वैशाली) से प्राप्त गुप्तकालीन मुहर में तथा वृहत् विष्णपुराण में इसे तीरभुक्ति कहा गया जिसका अपभ्रंश तिरहुत है । नदियों पर स्थित होने के कारण ये पूरा क्षेत्र तीरभुक्ति कहलाया । पर्ूव मध्यकाल में जिला अथवा परगना को भुक्ति कहते थे ।
विष्णुपुराण एवं भविष्य पुराण के अनुसार अयोध्या के र्सर्ूयवंशी निमि नामक राजा को ऋषि वशिष्ठ के शाप के कारण मृत्यु हो गयी क्योंकि राजा निमि ने एक हजार वर्षों तक चलने वाले यज्ञ कराने का निश्चय किया तथा पुरोहित के लिए वशिष्ठ को आमंत्रित किया । उस समय वाशिष्ठ इन्द्र द्वारा पांच सौ वर्षों तक चलने वाला यज्ञ करा रहे थे । यज्ञ समाप्ति के पश्चात पुरोहित बनने का बचन दिया । धर्ैय नही रखकर निमि ने गौतम को पुरोहित बनाकर यज्ञ प्रारम्भ किया । इन्द्र के यज्ञ पश्चात् ऋषि वशिष्ठ निमि के यज्ञस्थल पर पहुँचे तो गौतम को पुरोहित देख अत्यन्त क्रोधित होते हुए निमि को तत्काल शाप दे दिया, निमि का देहिक जीव नष्ट हो गया । निमि का कोई पुत्र नही था । यज्ञ अधूरा देख ऋषि प्रवरों ने आपस में विचार-विमर्श कर निमि के अवशेषों को मथकर उस शरीर से जो बालक उत्पन्न हुआ उसे मिथि कहा जाने लगा । मत्स्य पुराण के अनुसार 'मिथिस्तु मथनाज्जातः मिथिला येन निर्मिता ।' दैहिक चेतना से रहित अर्थ की कल्पना कर 'विदेह' शब्द राजा विशेष की वाचकता हो गयी । कालान्तर में विदेह पद राजवंश एवं राज्य दोनों के लिए वाचक हो गयी । व्युत्पत्ति की दृष्टि से मिथि या मिथिला हिमालयी भाषा समूह के शब्द प्रतीत होता है । मिथिला के अन्य व्यवहृत नाम है, नेभिकानन, ज्ञानपीठ, स्वर्ण्र्ााांगल, शाम्भवी, विकल्मषा, रामानन्दकृति, विश्वभाभिनी, नित्यमंगला, तपोवन, वृहदारण्य आदि । इन सारे क्षेत्रों को सिद्धपीठ भी कहा जाता है । इस क्षेत्र के सभी निवासी मैथिल कहलाते है । विदेह माधव के उत्तराधिकारियों ने लम्बे समय तक मिथिला में राज्य किया । महाकाव्यों तथा पुराणों में कोई पचपन राजाओं का वर्ण्र्ाामिलता है, निमि, मिथि, जनक, उदावसु, नन्दिवर्धन, सेकुत, देवरात, वृहद्रय, महावीर, सुधृति, धृष्टकेतु, हर्यश्व, मरु, प्रतीन्धक, कर्ीर्तिरथ, देवमीढ, विवुध, महीद्रक, कर्ीर्तिशत, महारोमा, स्वर्ण्र्ााेमा, ह्रस्वरोमा, सीरध्वज । कुशध्वज आदि । विदेह के जितने भी राजा हुए सभी तत्वज्ञानी के साथ ब्रहृमवेत्ता भी थे । मिथि और देवरात के बाद सीरध्वज जनक सबसे अधिक विख्यात हुए जिनकी र्सर्ूयशाला में शिक्षित थियी के पुत्र अखरानन द्वारा मिश्र में सूर्योपासना की धार्मिक क्रान्ति लाने की उपकल्पना की गई । हल के नासा से प्राप्त धरती पुत्री सीता हर्ुइ जिन्हें जानकी, वैदेही, किशोरी एवं मैथिली भी कहते हैं । जानकी के अतिरिक्त सरस्वती इसी मिथिलांचल स्थित महोत्तरी -नेपाल) के अभृण ऋषि की पुत्री थी । हैमवती उमा ने महादेव के परिणय सूत्र में आवद्ध होकर जगदीश की पदवी दिलायी ।
सति भवतु सुप्रीता देवी शिखर वासिनी ।
उग्रेण तपसा लब्धो यथा पशुपति पतिः ।।
अधिकांश दर्शन के बीज यहाँ अंकुरित हुये । प्राचीन एवं नवीन न्याय के जनक गौतम एवं गंगेशोषाध्याय का आविर्भाव हुआ । सांख्य दर्शन के पर््रवर्तक कपिल मुनि हुए । मिथिला का व्यवहार धर्म का दर्पण बन गया - धर्मस्य निर्ण्र्ााेज्ञेयो मिथिला व्यवहारतः । जैन और बौद्ध धर्मों को मिथिला में उर्वरा भूमि मिली । परन्तु अन्तिम जनक कराल के दुश्चरित्रता से उस वंश का नाश हो गया और मिथिला 'वज्जिगणतंत्र' में चला गया । समयक्रम में वज्जिगणतंत्र का विखराब हुआ और मिथिला सोलह सौ वर्षों तक परतंत्रता की बेडÞी में जकडÞा रहा । ज्ञण्ढर्ठर् इ. में जब कर्ण्ााट क्षत्रीय राजा नान्यदेव इस प्रदेश पर अपना राज्य स्थापित किया तो इसने मिथिला एवं स्वयं को मिथिलेश्वर कहना आरम्भ किया । नान्यदेव के आगमन से पहली बार मिथिला को अपना राजा मिला । कर्ण्ााट शासन काल में विशिष्ट वैवाहिक पद्धति अथवा पंजी व्यवस्था आरम्भ हर्ुइ, पांडुलिपियों तथा अभिलेखों को शक-संवत के अनुसार लिपिवद्ध किया जाने लगा । विद्वतजन अपने विद्वता के बलपर धन और मान अर्जन करने लगे । कर्ण्ााट तथा उनके उत्तराधिकारी ओईनवार शासकों की सुव्यवस्था में मिथिला लगभग सुरक्षित रही । वस्तुतः पूरे आर्यावर्त में मिथिला ही ऐसा राज्य था जहाँ मुसलमान शासक सबसे अन्त में अपनी प्रभुता स्थापित कर सकी । संक्षेप में कहा जा सकता है कि कर्ण्ााटवंशीय काल में मिथिला का एकीकरण होकर कला, साहित्य और मैथिली भाषा के विकास का उत्कर्षकाल रहा । मिथिला पर कर्ण्ााटवंशीय का शासन लगभग द्दद्दठ वर्षतक चला जो स्वर्ण्र्ााल था । उनकी राजधानी नानपुर से स्रि्रौनगढÞ स्थानान्तरित किया गया जो जनककालीन राजधानी जनकपुर से पश्चिम तथा बारा जिला के कलैया से बीस किलोमीटर दक्षिण पर्ूव में अवस्थित है । कर्ण्ााटवंशीय का वैवाहिक सम्बन्ध काठमांडू उपत्यका के राजा के साथ भी था । गणसुद्दीन तुगलक के आक्रमण के बाद अटूट मिथिला अप्राकृतिक रुप से दो भागों में विभक्त हो गया । उत्तरी मिथिला मुसलमान शासक से विमुक्त रहा जबकि दक्षिण मिथिला मुसलमान शासक के अधीनस्थ हो गया । बाद में चलकर मुसलमान शासक ओईनवार वंश को दक्षिण मिथिला का राज्य सौंप दिया, जिसके एवज में निर्धारित कर लेता था । उत्तरी मिथिला का बचा हुआ शेष भाग का विभाजन ज्ञडज्ञट में पुनः हुआ जिसे हम सुगौली सन्धि से जानते हैं । एकल मिथिला के विभक्त होने के बाद ही समय-समय पर सीमा का विवाद उचरता रहा है, जबकि दोनों राष्ट्रों का राष्ट्राध्यक्ष आर्यपुत्र ही हैं । नेपाल का नामाकरण का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नही है । कहा जाता है कि नेत्र मुनी बागमती एवं विष्णुमती के तट पर स्थित टेकु स्थान पर उनके घर में तपस्या किया करते थे । वहाँ के संरक्षक राजा ने उन्हीं के नाम से उक्त स्थल का नाम रख दिया । तिब्बती भाषा में 'ने' का अर्थ घर और पाल का अर्थ ऊन होता है । संस्कृत वांगमय के अनुसार देवताओं के वासस्थान को ने कहा जाता है । भाषाविदों ने लिखा है - "ने नीतिः ताम्पालवति नेपालः" । इसे और स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि न्यायः पाल्यते य ः सः नेपाल ः । वाद में चलकर यह पूरा क्षेत्र नेपाल के नाम से जनप्रिय हो गया । वृहद विष्णुपुराण, मिथिला माहात्म्य, अध्याय ज्ञद्ध श्लोक द्धद्द-द्धद्ध के आधार पर कोशी से गण्डक तक, गंगा प्रवाह से हिमालय वन तक की तीरभुक्ति अथवा मिथिला कहा गया है । श्री महेन्द्र नारायण शर्मा कृत मिथिलादेशीय - पञ्चांग, मृख पृष्ठ, सन् ज्ञघछज्ञ साल, ज्ञढद्धघ-द्धद्ध में प्रकाशित अनुसार ः
गंगा वहथि जनिक दक्षिण पर्ूव कौशिकी धारा ।
पश्चिम वहथि गण्डकी उत्तर हिमवत वन विस्तारा ।
कमला त्रियुगा अमृता धेमुरा वागमती कृत सारा ।
मध्य वहथि लक्ष्मणा प्रभृत्ति से मिथिला विद्यागारा ।।
आज ये लगभग पाँच हजार वर्षपर्ूव यह क्षेत्र गंगासागर का भाग था और अरब सागर से भी जुडÞा था । अजातशत्रु के समय मिथिला का ऐसा उत्कर्षकाल था कि चीन के दक्षिण भाग की वस्तियों का नाम मिथिला के नाम पर था । यथा मानचाड का नाम मिथिला रखा गया था । मिथिला का अतीत कहता है कि मिथिला याचना नही करता परन्तु अयाची ने शंकर को जन्म देकर सम्पर्ूण्ा जगत को वर्ण्र्ााकरने का सामर्थ्य दिया, भामती ने दीप को सहेज कर वाचस्पति का अंक पूरा की, भारती अर्द्धर्ाागनी के रुप में मंडन मिश्र को विजयश्री दिलायी, विद्योत्तमा ज्ञानदात्री बनी कालिदास का, सीता ने सहिष्णुता दी समस्त नारी समाज को । आज धरती पुत्री सीता कराह रही है मिथिला की वेदना पर और मूक होकर अपनी माता के गर्भ से कह रही है, मिथिला विमुक्त हो हिंसा से, मीमांसा, न्याय, वेदाध्ययन से पटु तथा विद्वतजन से मंडित हों ।
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सभी के जीवन में उजाला


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The word 'property' itself connotes to some significance in each and every individual's life. In the modern world where economic activities have become the integral part of any state, the value of property can not be denied. So it is obvious that each state guarantees the rights of their citizens to the property as a fundamental right in the constitution. Property is regarded as the movable, immovable seen, observable goods etc which in exchange have some worth. But the property related to a person’s skill or creativity is has not been duly recognised in Nepal. The property which is related to individual's skill, creativity, talent, knowledge is intellectual property.
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Cabinet names ambassadors to India, France The government has named the ambassadors for India and France. A cabinet meeting on Wednesday named Dr Chandra Kanta Poudel and Maoist central leader Ram Karki as the ambassadors to India and France respectively. The ambassador-nominees are required to undergo parliamentary hearing before being appointed to their posts.
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PM Dahal confers with industrialists, says plans afoot to rescue them Prime Minister Pushpa Kamal Dahal on Wednesday said the government is committed towards resolving problems prevalent in the industrial sector of the country, and as per this will soon declare it "bandh free zone" where all kinds of strikes will be banned. He also said the government is planning to introduce projects to weed out the problems facing the sector. "Industries are the backbones of the economy and so the government is planning to prohibit all kinds of strikes in the industrial sector," PM Dahal said. In a meeting with representatives of representatives of Federation of Nepalese Chambers of Commerce and Industries, Confederation of Nepalese Industries (CNI) and other business organizations at the Prime Minister's Office (PMO) in Singha Durbar, PM Dahal gave a patient ear to the grudges of the industrialist and businessmen. Finance Minister Dr Baburam Bhattarai, Industry Minister Astalaxmi Shakya and Water Resources Minister Bishnu Poudel were also present in the meeting According to President of CNI Surendra Bir Malakar, who was also present in the meeting, they basically requested PM Dahal to make arrangements for an unrestricted power supply so that industries can operate without any glitches. Similarly, they also requested him to make alternative arrangements to end the prolonged hours of load-shedding that is seriously affecting country's productivity and harming the economy. Malakar said PM Dahal was very positive towards their demands. Many industries are running far below capacity or have already closed their shutters due to the excruciating load-shedding regime
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Astrologers finally settle for a 12-month calendar After a long controversy on whether to use a 12-month or an 11-month calendar for Nepali year BS 2066, astrologers have settled on continuing the 12-month calendar to minimise the hassles a changed calendar would invite. Chairman of Panchanga Nirnayak Samiti, Professor Madhav Bhattarai, informed on Tuesday that an all party religious meeting had decided to stick to the old 12-month calendar for technical reasons. “Making an 11-month calendar will bring a lot of hassles in practice,” said Dr Bhattarai. “So, we have decided to stick to the 12-month calendar.” Ministry of Culture and State Restructuring has also directed the Panchanga Nirnayak Samiti-the apex government body to decide on matters related to calendar-to adopt a 12-month calendar for 2066. Earlier, a task force formed by the government had recommended the government for an 11-month calendar in 2066 in order to adjust the timing of Nepali festivals with seasons of the year. The seasons of the year are determined by solar movement, while the Nepali calendar is based on the earth’s movement. Considering the earth’s movement vis-à-vis solar movement, Nepali year is already 23 days behind. This has resulted in Nepali festivals occurring 23 days later according to the seasons. The task force recommended the government to scrap Chaitra – the final month of the Nepali year in order to make up for the ‘loss’. Astrologers have already prepared the 12-month calendar and forwarded it for printing.
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Wednesday, April 8, 2009

सीपीएम का सांप्रदायिक चेहरा उजागर - डॉ. कुल्दिप्चन्द अग्निहोत्री

सीपीएम का व्यक्तित्व शुरू से ही दोहरा रहा है । यह सीपीएम का दोष नहीं है बल्कि उसके हार्ड वेयर का भीतरी दोष ही है । सीपीएम स्वयं का प्रगतिशील और प्रगतिवादी कहता है । उसका मानना है कि प्रगतिवाद के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा सम्प्रदाय अथवा मजहब है । इसलिए जहॉं भी साम्यवादियों की सत्ता आती है तो वे सबसे पहले वहॉं के विभिन्न मजहबों अथवा सम्प्रदायों को नष्ट करने का प्रयास करते हैं । माक्र्सवादी ऐसा स्वीकार करते है कि मजहब अथवा सम्प्रदाय के आधार पर व्यक्ति की जो पहचान बनती है वह प्रगति के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा होती है । इसके विपरीत व्यक्ति की पहचान उसके वर्ग के आधार पर होनी चाहिए । वर्ग की यह पहचान संघर्ष की धार को तेज करती है जिससे प्रगतिवादी समाज की स्थापना होती है । भारत के माक्र्सवादी भी मोटे तौर पर इस सिद्वांत को स्वीकार करते हैं और उन्हें ऐसा करने का पूरा अधिकार भी है । भारत की मिट्टी की यही खूबी है कि यहॉं विभिन्न विचारधाराओं, और दर्शन शास्त्रों को विकसित होने का पूरा अधिकार है । परन्तु सीपीएम की यह दिक्कत है कि इस वैचारिक आधार पर वे इस देश की सत्ता हासिल नहीं कर सकते । यही कारण है कि साम्यवादी आंदोलन सिकुड़ता सिकुड़ता अन्तत: पश्चिमी बंगाल और केरल तक सीमित हो गया है । पश्चिमी बंगाल में भी कामरेडों के भ्रष्टाचार और जनविरोधी आचरण के कारण, उनका दुर्ग हिलने लगा है । केरल में तो पहले ही वे पॉच साल के अन्तराल के बाद सत्ता में आ पाते हैं । सत्ता प्राप्त करने की हड़बड़ी में सीपीएम ने अब विशुद्व अवसरवादी रास्ता अख्तियार करने का निर्णय कर लिया लगता है । यही कारण है कि सीपीएम लोकसभा के होने वाले चुनावों में केरल में मुस्लिम आतंकवादी संस्थाओं के साथ चुनाव समझौता कर रही है । सीपीएम भी जानती है कि यदि कट्रतावादी मुस्लिम संस्थाओं और आतंकवादी मुस्लिम संगठनों की मदद ली जाती है तो शायद कुछ सीटें तो पार्टी की झोली में आ जायेगी परन्तु उससे देश को बहुत नुक्सान होगा । साम्प्रदायिकता के जहर से राष्ट्रीयता खंडित होती है- ऐसा कामरेड भली भांति जानते हैं । परन्तु लगता है दिल्ली की सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की सीपीएम को इतनी व्याकुलता है कि वह साम्प्रदायिकता के इस अजगर को साथ लेने से भी गुरेज नहीं कर रही । प्रसंग केरल का है । केरल में सीपीएम ने अबदुल निसार मदनी की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से चुनावी समझौता किया है । मदनी कोयम्बटुर बम बलास्ट के मुख्य अभियुक्त थे । उनके लश्कर और इंडियन मुजाहदीन से गहरे रिश्ते हैं । वैचारिक स्तर पर उनकी पार्टी मुसलमानों को अलग राष्ट्र के रूप में मानती है और वे स्वंय को भारत का विजेता मानने का स्वप्न पालते हैं । मदनी और उनकी पार्टी मानती है कि मुसलमानों ने भारत को जीता था और इस पर अपना राज्य स्थापित किया था । मुसलमानों से अंग्रेजों ने भारत का राज्य छीन लिया लेकिन दो सौ साल बाद वे यहॉं से जाते समय राज्य भारतीयों को सौंप कर चले गये, मुसलमानों को नहीं । मदनी और उनके अनुयायी अब यह राज्य आतंक और शस्त्र बल से प्राप्त करना चाहते हैं । यह अलग बात है कि मदनी और उन जैसे दूसरे लोग भारत पर आक्रमणकारी मुसलमानों की सन्तान नहीं हैं बल्कि वे भारतीयों में से ही परिवर्तित हुए हैं । परन्तु मदनी अपनी पहचान उन आक्रमणकारी मुस्लिम आक्रांताओं से ही जोड़ते है। सीपीएम इसी मदनी से चुनाव में समझौता कर रही है । इससे केरल का सम्पूर्ण राजनैतिक परिदृश्य साम्प्रदायिक विष से विषाक्त हो जायेगा । परन्तु कामरेड तमाम सिद्वांतों को भूल कर साम्प्रदायिकता का वर्जित सेब खाना चाहते है। यह अलग बात है कि यह सेब खाने के बाद वे भारत के स्वर्ग से बाहर धकेल दिये जायेंगे । लेकिन सत्ता के सेब के लालच ने उनकी ऑखों पर पट्टी बांध रखी है । ऐसा नहीं कि मदनी और उनकी पार्टी के इस सम्प्रदायिक चेहरे को सीपीएम वाले पहचान नहीं रहे । यहॉं तक कि मदनी से समझौता करने के प्रश्न पर सीपीएम के ही कुछ तपे तपाये और सिद्वांतवादी लोग खिन्न चित्त हैं ।केरल के माक्र्सवादी मुख्यमंत्री वी.एस. अज्युतानन्दन इसका विरोध कर रहे हैं । उन्होंने तो यहॉं तक कहा है कि केरल सरकार मदनी के आतंकवादियों से सम्बन्धों की जॉच भी करवा रही है । उनका मानना है कि मदनी जैसे साम्प्रदायिक आतंकवादियों से समझौते से सीपीएम की मूल पहचान समाप्त हो जायेगी और वह सत्ता लोलुप राजनैतिक दल के रूप में परिवर्तित हो जायेगी । परन्तु जैसा की राजनीति में होता है सत्ता के लालच में जब कोई भी राजनैतिक दल अपने सिद्वांत छोड़कर बाजार में निकल आता है तो उसके लिए मर्यादा की सभी सीमाएं अपने आप ही समाप्त हो जाती हैं । इसी के चलते सीपीएम ने सबसे पहले भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से समझौता किया । केरल के सीपीएम के महासचिव विजय पिन्यारी कनाडा की किसी कम्पनी के साथ करोड़ों के घोटाले में संलिप्त पाये गये । प्रदेश के मुख्यमंत्री अच्युतानन्दन ने इसकी जॉच भी करवानी चाही , लेकिन सारी पोलित ब्यूरो विजय के साथ खड़ी हो गई । शायद एक कारण यह भी रहा होगा कि विजय की जॉच के बाद पता नहीं कितने चेहरे बेनकाब हो जायेंगे । भ्रष्टाचार से समझौता करने के बाद दूसरा पड़ाव अब्दुल नसार मदनी की पीपुल्स डेमोक्र ेटिक पार्टी के साथ समझौते का ही बचता था, जो सीपीएम ने पूरा कर दिखाया है । गॉंव की एक कथा है कि मेरा बेटा जुआ तब खेलता है जब शराब पी लेता है । शराब तभी पीता है जब मीट खा लेता है और मीट तभी खाता है जब उसे वेश्यालय में जाना होता है । वैसे बेटे में कोई दोष नहीं है । लगता है कार्ल माक्र्स के इस भारतीय बेटे की यही दशा हो रही है । माक्र्स भी सीपीएम के इस साम्प्रदायिक चेहरे को देखकर कब्र में अपने बाल नोच रहे होंगे ।

सीपीएम का सांप्रदायिक चेहरा उजागर

नेपाली लोकतंत्र का गला घोटनें की फिराक में है माओवादी - गौतम चौधरी

भारत का पारंपरिक पडोशी नेपाल एक बार फिर गृहयुद्घ की ओर बढ रहा है। नेपाल में सक्रिय ईसाई मिलीशिया, माओवादी आतंकियों ने सरकार से बगावत कर पुन: पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी में नए गुरिल्लों की भर्ती की घोषणा की है। इस घोषणा के बाद माओवादियों और नेपाली सेना में युद्घ की सम्भावना बढ गयी है। इधर नेपाली सेना ने भी नए जवानों की बहाली प्ररारंभ की है। दोनों ओर तनातनी से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि नेपाली माओवादी नेतृत्व और सेना के बीच भारी गतिरोध है। इस द्वन्द्व की परिणति पर मिमांशा करने से जो बातें ध्यान में आती है वह नेपाल के लिए तो बुरी है ही भारतीय कूटनीति के लिए भी अच्छा संदेश नहीं है। इस प्रकार का द्वन्द्व या गतिरोध केवल माओवादियों और सेना के बीच में ही नहीं है अपितु नेपाल में सरकार चला रहे गठबंधन में भी है। हालांकि नेपाली प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ने अपने बायान और भौतिक प्रयास से नेतृत्व के गतिरोधों को समाप्त करने का प्रयास तो किया है, लेकिन जिस प्रकार चरमपंथी नेता तथा नेपाल के गृहमंत्री बाबूराम भट्टराई और प्रतिरक्षा मंत्री राम बहादूर थापा ने बयान दिये और फिर उसके तुरन्त बाद विदेश मंत्री तथा मधेशी जनाधिकार फोरम के नेता उपेन्दा्र प्रसाद यादय ने माओवादियों पर पलटवार किया उससे स्पष्ट हो गया है कि सरकार में शामिल पार्टियों को नेपाल की चिन्ता नहीं अपितु उनें अपने हितों की चिन्ता है। वर्तमान गतिरोध से सरकार में शामिल सबसे बडी पार्टी नेपाल की काम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) की मन्शा का एक बार फिर से खुलासा हो गया है। यह भी स्पष्ट हो गया है कि नेपाली माओवादी लोकतंत्र की बात भले कर लें लेकिन उन्हें किसी कीमत पर लोकतंत्र पसंद नहीं है। नेपाली माओवादी नेता अभी भी उसी प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं जिस प्रकार का व्यवहार वे भूमिगत रहने के समय किया करते थे। तमाम बिन्दुओं पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि माओवादी एक बार फिर लडाई की पृष्टभूमि तैयार करने लगे हैं। माओवादियों को १४ हजार भोले भाले नेपालियों की हत्या से मन नहीं भरा है। वे कुछ और लोगों की हत्या करना चाहते हैं। माओवादियों के बीच बहस चल रही है कि यह सत्ता आधी अधूरी है। इससे माओवाद की मूल अवधारना को नहीं पया जा सकता है इसलिए कुछ और लोगों की हत्या कर सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण किया जाये। माओवादी सोच के कारण सेना में भारी आक्रोश है। सेना पारंपरिक संस्कृति को बनाए रखना चाहती है। सेना लोकतंत्र का भी समर्थन कर रही है, लेकिन माओवादी यह प्रचार करने में लगे हैं कि सेना जनता के द्वारा चुनी गयी सरकार को अस्थिर करना चाहती है। जानकारों का मानना है कि माओवादी अब तीसरे चरण की लडाई के फिराक में हैं। माओवादियों को भूमिगत अभियान के समय चीन, ईसाई मिशनरी और पाकिस्तान से सहायता मिली था। अब माओवादियों को ये तीनों शक्तियां अपने अपने एजेंडों को नेपाल में लागू करने के लिए दबाव डाल रही है। इधर राष्ट्रवादी सोच ने सेना को एहसास करा दिया है कि वर्तमान गतिरोध में अगर उसने माओवादियों के सामने घुटने टेक दिया तो चीन और रूस की तरह सेना को अपने वास्तविक स्वरूप में परिवर्तन करना होगा। फिर नेपाल का भी वास्तविक ढांचा समाप्त हो जाएगा और पता नहीं नेपाल कहां पहुंच जाएगा। इन तमाम बिन्दुओं पर विचार करने से नेपाल का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है। इन्ही सोच ने नेपाली सेना को माओवादियों से सतर्क रहने की शक्ति प्रदान कर दी है। सेना के तेवर से यही जान पडता है कि सेना माओवादियों के सामने घुटने नहीं टेकेगी और माओवादी गतिरोध बढा तो सेना अपने हिसाब से गतिविधि भी चला सकती है। फिलवक्त तत्कालीन गतिरोध के पीछे का कारण माओवादियों के द्वारा फिर से ङ्क्षहसक होने की घोषणा है। लोकतंत्रात्मक गतिविधि के बाद एक बार ऐसा लगा था कि नेपाली माओवादी अब अपने तमाम एजेंडों को छोड नेपाल के विकास के लिए काम करेंगे, लेकिन नेपाली माओवादियों को न तो चीन और न ही ईसाई मिशनरी इस काम में लगने देगा। माओवादी रणनीति के जानकारों का मानना है कि अब माओवादी दो सिद्घांतों पर काम करने की योजना बना रहा है। पहला किसी तरह सेना पर नियंत्रण करना और दूसरा नेपाली प्रबुद्घ-जन को इतना डरा देना कि वह किसी प्रकार का नया लोकतंत्रात्मक आन्दोलन खडा नहीं कर पाये। माओवादियों की इसी रणनीति के कारण नेपाल मीडिया सडक पर आ गयी। फिर माओवादियों ने विश्व प्रसिद्घ पशुपतिनाथ जी के मंदिर पर आक्रमण कर दिया। इन दोनों कृत्यों ने माओवादियों की सोंच को जाहिर कर दिया है। नेपाल में हो रहे नित नवीन घटनाक्रमों से एसा प्रतीत होता है कि नेपाल का माओवाद पूर्णरूपेण प्रयोजित है। नेपाली आवाम लोकतंत्र में विश्वास करता है। माओवादियों के साथ चंद लोग हैं और सत्ता में आने के बाद माओवादी जनता की उस कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं जिसका उन्होंने वादा किया था। इस परिस्थिति में माओवादियों को अब सत्ता पर पूर्ण अधिकार चाहिए जिससे वे मनमानी कर सकें। नेपाल का हिन्दुत्व और नेपाली सेना इस दिशा में माओवादियों के सामने लगातार चुनौती खडी कर रहे है। माओवादी इन चुनौतियों से काफी परेशान है। यही कारण है कि माओवादी अब अनरगल कृत्य पर उतारू हो गये हैं। साम्यवादियों की यह कोई पहली पहल नहीं है। इससे पहले दुनिया के सामने कई उदाहरण हैं जो साम्यवाद के लाल चोंगा को खुंखार बना देता है। २०वीं शताब्दी में रूस में कथित रक्तहीन क्रांति हुई थी। दुनिया उसे बोलसेविक क्रांति के नाम से जानती है। उसके नेता ब्लादमीर एलिच लेनिन थे। उन्हें भी लोकतंत्र पसंद नहीं था और इसीलिए कैरंसकी को सत्ता से हटाकर लेनिन ने रूस पर अपना कब्जा जमा लिया। स्ट्रालीन उससे भी खतरनाक निकला और स्ट्रॉलीन ने ट्रॉस्की जैसे जनोन्मुख विचार रखने वाले साम्यवादी की हत्या तक करवा डाली। चीन में भी यही हुआ जो आज नेपाल में हो रहा है। वामपंथ में लोकतंत्र का कोई महत्व नहीं होता। वहां साम्यवादी नेता के सामने किसी की नहीं चलती है और यही कारण है कि माओ के युग के बाद चीन अमेरिका परस्त डेंगवादी हो गया। नेपाल के जनतंत्र को हडपने के लिए ताना-बाना बूना जा रहा है। हालांकि नेपाली सेना ने संयम का परिचय दिया है। नेपाली सेना अपने काम में लगी है। उसे इस बात का अंदाज है कि समय रहते सतर्कता नहीं बरती गयी तो नेपाल का सांस्कृतिक स्वरूप समाप्त हो जाएगा। नेपाल का जनमानस भी अब माओवादियों की भावना को समझने लगा है। पूर्व में मीडिया और प्रगतिशील कहे जाने वालों ने माओवाद का समर्थन तो किया लेकिन जब माओवादियों की मन्शा पर से पर्दा उठने लगा तो लोग किनारे कटने लगे हैं। माओवादी अपने ही जाल में फसने लगा है। माओवादी विचारक, नेता और कार्यकर्ता समय रहते नहीं चेते तो नेपाल की जनता उन्हें दरकिनार कर सकती है। फिर माओवादियों को इतना तो विचार करना ही चाहिए कि आज की परिस्थिति और लेनिन, माओ के समय की परिस्थिति में फर्क हैं। यही नहीं रूस और चीन से नेपाल का कुछ भी मेल नहीं खाता। इसलिए नेपाल की क्रांति को रूस और चीन की क्रांति से तुलना करना ठीक नहीं होगा। माओवादियों को अपने धरातल का अगर ज्ञान है तो उन्हें विचार करना चाहिए कि नेपाल का निमार्ण किस प्रकार किया जाये। नेपाली माओवादियों को इस विषय पर भी विचार करना चाहिए कि अब वे लोग भूमिगत गुरिल्ले नहीं रहे, वे सरकार चला रहे हैं। साथ ही यह भी विचार होना चाहिए कि उस सरकार में केवल माओवादी ही नहीं हैं उनके साथ कई विचारधारा के लोग सरकार में शमिल हैं। फिर यह विचार होना चाहिए कि जिस प्रकार नेपाल का राजा, नेपाल की जनता, सेना, मीडिया, न्यायालय और प्रशासन जनतंत्र का सम्मान कर रहा है उसी प्रकार माओवादियों को भी जनतंत्र का सम्मान करना चाहिए। नेपाल में माओवादियों को विशेष दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। इससे नेपाल का स्वरूप बिगर जाएगा और नेपाल का सांस्कृतिक भूगोल भी विदा्रुप हो जाएगा। नेपाल की परिस्थिति से भारत पर भी प्रभाव पडना स्वाभाविक है। नेपाल में संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन दोनों का हित टकरा रहा है। नेपाल में चीन मजबूत होता है तो अमेरिका की कूटनीतिक हार होगी और अमेरिका मजबूत होता है तो वह चीन के लिए खतरनाक होगा। नेपाल दोनों महाशक्तियों का अखाडा बनता जा रहा है। इस अखाडे से अन्ततोगत्वा भारत को ही घाटा होगा। भारत को इस दिशा में पहल करनी चाहिए और नेपाल में हो रहे नित नवीन परिवर्तन को सकारात्मक बनाने की योजना बनायी जानी चाहिए। भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ में इस मुद्दे को उठाना चाहिए कि महाशक्तियों के द्वारा नेपाल में हो रहे हस्तक्षेप बंद हों। ऐसा नहीं करने से नेपाल तो मरेगा ही भारत के लिए एक और समस्या खडी हो जाएगी। जिस प्रकार चीन, पाकिस्तान, म्यामा, बांग्लादेश और श्रीलंगा से भारत को चुनौती मिल रही है उसी प्रकार नेपाल से भी चुनौती मिलने लगेगी। इस परिस्थिति में नेपाल के लिए भारतीय हस्तक्षेप जरूरी है।