Saturday, September 26, 2009

मोदी को घेरने के फिराक में अभिजात्य गिरोह - गौतम चौधरी

इसरत जहां मुठभेड के बहाने एक बार फिर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को घेरने की योजना बनाई जा रही है। अहमदाबाद महानगर न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस0 पी0 तमांग की आख्या आते ही तिस्ता गिरोह पुन: सक्रिय हो गया है। तमांग की आख्या में कहा गया है कि इसरत जहां और उसके साथ मारे गये उसके तमाम साथी निर्दोष थे तथा गुजरात पुलिस ने कथित आतंकियों को मुम्बई से पकडकर लाई, दो दिनों तक अवैध पुलिस अभिरक्षण में रखी और फिर उसे मार कर मुठभेड दिखा दिया गया। न्यायमूर्ति तमांग की आख्या कहता है कि गुजरात पुलिस ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि कुछ अधिकारियों को मुख्यमंत्री के सामने अपना कद उंचा करना था। लेकिन इसरत मुठभेड के बाद सन 2004 में गुजरात पुलिस ने जो आख्या प्रस्तुत की वह न्यायमूर्ति तमांग की आख्या से बिल्कुल भिन्न है। उस आख्या में कहा गया है कि इसरत और उसके तमाम साथी पाकिस्तान समर्थित अति खतरनाक आतंकी संगठन लस्कर ए लोईबा के सदस्य थे और वे लस्कर के इशारे पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मारने अहमदाबाद आए थे। गुजरात पुलिस का यह भी दावा है कि पुलिस को इस बात की जानकारी केन्दीय गुफिया विभाग से प्राप्त हुई और खुफिया विभाग के निशानदेही के आधार पर ही इसरत ऑप्रेशन को अंजाम दिया गया। गुजरात पुलिस के द्वारा दी गयी आख्या की पुष्टि विगत दिनों केन्द्रीय गृह मंत्रालय के द्वारा राज्य सरकार को भेजे गए एक शपथ पत्र से भी होता है। उस सपथ पत्र में बाकायदा कहा गया है कि 15 जून, सन 2004 में पुलिस अभियान के दौरान मारे गये इसरत के साथ वे तमाम लोग आतंकवादी थे और लस्कर ए तोईबा के सक्रिय सदस्य थे। शपथ पत्र में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि लस्कर के मुख-पत्र गजबा से इस बात की पुष्टि होती है। गजबा नामक अखबर में क्या लिखा है इस बात का खुलासा न तो केन्द्र सरकार के किसी एजेंशी ने किया है और न ही गुजरात सरकार ने इस विषय पर कोई मुकम्मल तथ्य उपलब्ध करायी है लेकिन केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने इस बात को माना है कि उसके द्वारा एक सपथ पत्र गुजरात सरकार को भेजा गया है।

इन तमाम बिन्दुओं पर प्रकाश डालने से ऐसा लगता है इसरत मामले में बडा झोल है जो किसी स्वतंत्र संस्था के द्वारा जांच के बाद ही सामने आएगा लेकिन इसरत प्रकरण से दिल्ली एवं गांधीनगर की राजनीति में एक बार फिर से उबाल आ गया है। जहां एक ओर भारतीय जनता पार्टी अपने मुख्यमंत्री के पक्ष में उतर गयी है वही कांग्रेस और वाम दल मोदी को आदमखोर साबित करने की योजना में लग गये हैं। इस पेचीदे मुठभेड पर नि:संदेह एक बार फिर राजनीति की रोटी सेका जाना तय लग रहा है। लेकिन जो लोग इसरत प्रकरण को नरेन्द्र मोदी से जोड कर देख रहे हैं वे या तो गुजरात की वस्तिुस्थिति से अनभिग्य है या फिर वे किसी न किसी रूप से पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। मोदी, गुजरात और गुजरात की परिस्थिति को समझाने के लिए न केवल सन 2002 के दंगे पर ध्यान केन्द्रित करना होगा अपितु दंगे के पीछे की पृष्ठमूमि भी समझनी होगी। जो लोग सन 2002 के दंगे को सरकार संपोषित षडयंत्र मानते हैं वे भी गलत हैं।

गुजरात में हिन्दू मुसलमानों के बीच दंगा कोई नई बात नहीं है, लेकिन पहले दंगों में मुसलमान भारी पडते थे परंतु गोधरा कांड के बाद फैले दंगे में मुसलमान कमजोर पड गये। इसके पीछे दो कारण है एक तो पहले के अपेक्षा हिन्दू आक्रामक हुआ है। दूसरा दंगों में गुजरात प्रशासन का हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति है। इसे कोई आरएसएस से जोडे या फिर यह कहे कि यह गुजरात के भाजपा शासन द्वारा संपोषित षडयंत्र का प्रतिफल है तो वह उसकी मनोवृति हो सकती है लेकिन ऐसा देश भर में हुआ है। बिहार के भागलपुर के दंगे में भी ऐसा ही हुआ। भागलपुर के दंगे में मुसलमानों की तुलना में हिन्दू ज्यादा आक्रामक थे, साथ ही वहां के बहुसंख्यक हिन्दू अधिकारियों ने हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति दिखाई। आए दिन ऐसी परिस्थिति देश के कई भागों में देखने को मिल रहा है। देश के कई भागों में ऐसा देखा जाता है कि वह चाहे किसी पार्टी का नेता हो दंगे से समय हिन्दू हिन्दुओं के पक्ष में और मुसलमान नेता मुसलमानों के पक्ष में खडा हो जाता है। तो फिर गुजरात देश का अपवाद कैसे हो सकता है? यहां भी सन 2002 के दंगे में वही हुआ जो आए दिन देश के अन्य भागों में हो रहा है लेकिन सन 2002 का गुजरात दंगा कांग्रेस और साम्यवादी दलों के लिए मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक बडा हथियार साबित हुआ। देश की मीडिया ने भी गुजरात के दंगे को बेवजह तूल दिया। इस बजह से गुजरात ही नहीं देश के अन्य भागों के मुसलमानों में एक नए प्रकार का डर घर कर गया। इस डर का फायदा सीमा पर के दुश्मनों ने उठाया और देखते ही देखते पूरा भारत इस्लामिक आतंकवाद के जद में आ गया। सीधे साधे शब्दों में यह कहा जाये तो देश में इस्लामी आतंकवाद का विस्तार भारतीय मीडिया और प्रतिपक्षी राजनीति के नमारात्मक प्रयास का प्रतिफल है।

सन 2002 के दंगे के बाद गुजरात इस्लामी आतंकवाद के जद में आ गया। इस बात पर कम चर्चा होती है लेकिन दंगे के बाद गुजरात के सैंकडों हिन्दू नेताओं की हत्या हुई है। इसके अलावा लगभग 20 छोटी बडी आतंकी हमले गुजरात में हो चुके हैं। यह साबित करने के लिए काफी है कि दंगा में विश्वास करने वाली शक्ति अपनी रणनीति बदल ली है एवं वह अब हिन्दू नेतृत्व को अपना निशाना बना रही है साथ ही दंगा तो नहीं आतंकी हमला कर हिन्दुओं को मारने का कोटा पूरा किया जा रहा है। इस परिस्थिति में अगर केन्द्रीय गुप्तचर संस्था गुजरात पुलिस को कोई सूचना देती है तो उसपर कार्रवाई स्वाभाविक है। इसके अलावा इसरत अभियान में गुजरात और महाराष्ट्र दोनों राज्यों की पुलिस बराबर की हिस्सेदार थी तो फिर गुजरात पुलिस और गुजरात के मुख्यमंत्री को ही कठघरे में खडा करना कितना उचित है, इसपर विशद मीमांसा की जरूरत है।

हर मामले में मोदी और गुजरात को घसीटना आज देश की मीडिया के लिए मानो फैसन हो गया हो। अभी अभी उत्तराखंड और दिल्ली में फर्जी मुठभेड हुए हैं लेकिन किसी मीडिया समूह ने इस बात की चर्चा नहीं की कि वहां का मुख्यमंत्री आदमखोर है लेकिन मोदी को लगातार मीडिया यह साबित करने पर लगी है कि मोदी उल्पसंख्यकखोर हैं। इससे मीडिया का अभिजात्य, जातिवादी चेहरा उभरकर सामने आता है। वर्तमान समय में देश के अंदर एक खतरनाक साजिश हो रही है। देश के कुछ अभिजात्य परिवार, देश के सभी तंत्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाह रहे हैं। इन समूहों को इस काम में बहुत हद तक सफलता भी मिल चुकी है। देश का सर्वोच्च न्यायालय मानों कुछ परिवार के लिए आरक्षित कर दिया गया हो। यही हाल देश के कार्यपालिका का भी है। कार्यपालिका के आला पदों पर परिवारवाद जम कर हावी है। विधायिका में नरेन्द्र मोदी, कल्याण सिंह, उमा भारती, मायावती, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, येदुरप्पा, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, शरद यादव जैसे कुछ सामान्य लोगों की घुस पैठ हो गयी है जो देश की अभिजात्य शक्तियों को पच नही रही है और यही कारण है कि मोदी जैसे राजनेताओं को अपने परोये सभी का विरोध झेलना पडता है। अगर ऐसा नहीं है तो खुद गुजरात में कांग्रेस के शासनकाल में 10 से अधिक मुठभेड हुए उस पर प्रश्न क्यों नहीं खडा किया जाता है? कांग्रेस के नेता शंकर सिंह बाघेला के मुख्यमंत्रित्वकाल में लतीफ को मार गिराया गया था उस पर कांग्रेस या साम्यवादी दल क्यों नहीं बोलते? कुछ नहीं नरेन्द्र मोदी प्रतिपक्षी के अन्य किसी आघात से नहीं घबराते और चट्टान की तरह खडे हैं। साथ ही वे अभिजात्य गोष्ठि के सदस्य नहीं हैं क्यों कि मोदी अत्यंत पिछडी जाति से आते हैं। इस बात को न तो अभिजात्य मीडिया पचा पर रही है और न ही सत्ता पर हावी प्रभुता सम्पन्न लोग। यही कारण है कि मोदी हर समय सभी के टारगेट में रहते हैं। अब देखना यह है कि मोदी विरोधी गिरोह मोदी को पछाडता है या तमाम बाधाओं को पार कर मोदी राष्ट्रीय नेतृत्व की कमान झटक लेते हैं।

Sunday, September 20, 2009

आर्थिक अनुशासन या मुदो से भटकने की राजनीती - गौतम चौधरी

कांग्रेस पार्टी और केन्द्र सरकार आजकल एक नए अभियान में लगी है। गांधी के शिष्यों को लगभग 50 साल बाद एकाएक गांधी की याद आ रही है। विगत दिनों सरकार के सबसे प्रबुद्ध माने जाने वाले मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि देश में आर्थिक अनुशासन की जरूरत है और इस अनुशासन के लिए मंत्री तथा बडे अधिकारियों को पहल करन चाहिए। प्रणव दा ने न केवल कहा अपितु स्वयं इकॉनामी क्लास में हवाई यात्रा कर आर्थिक अनुशासन की प्रक्रिया प्रारंभ करने का प्रयास किया। देखा देखी कई मंत्रियों ने प्रणव दा का अनुसरण किया। स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने अपने खर्च में कटौती करने के लिए इकॉनामी क्लास में यात्रा की। कांग्रेस के द्वारा चलाए जा रहे नवीन तमाशों के बीच कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी ने दो कदम और आगे बढकर लुधियाना तक की यात्रा शताब्दी में कर डाली। राहुल की इस यात्रा ने मानो देश भर की मीडिया में भूचाल ला दिया हो। सभी अखबार ने अपनी सुखियां इसी खबर से बना डाली। दूरदर्शन वाहिनी वाले लगातार चीखते रहे कि राहुल ने अदभुद काम कर दिया और वे महात्मा गांधी से मात्र एक कदम ही पीछे रह गये हैं।
कांग्रेस के आर्थिक अनुशासन के अभियान की हवा पार्टी के नेताओं ने ही निकाल दी है। विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने तो इकानोमिक क्लास की यात्रा को पशुओं की यात्रा बताकर कांग्रेस के आन्तरिक मनोभाव को प्रगट कर दिया है। लेकिन कांग्रेस और केन्द्र सरकार इस अभियान को आगे बढाने की योजना में है। इस योजना से देश का मितना भला होगा या आर्थिक अपव्यय पर कितना अंकुश लगेगा, भगवान जाने, लकिन जिस प्रकार कंपनी छोट कलेंडर भारी जैसे कहावत की तरह कांग्रेसी इस अभियान को प्रचारित कर रहे है उससे तो इस पूरे अभियान से एक भयानक राजनीतिक षडयंत्र की बू आ रही है। एक हिसाब लगाकर देखा जाये तो कांग्रेस के मंत्रियों के पास अरबों की बेनामी चल अचल संपत्ति है। स्वयं सोनिया जी ऐसी कई संस्थाओं की प्रधान हैं जो स्वयंसेवी संगठन के नाम पर प्रति वर्ष करोडों की उगाही करता है।
ऐसे ही दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला जी का मामला है। कांग्रेस के लगभग सभी बडे नेताओं के पास अरबों की संपति है। हां, प्रणव दा या ऐ0 के0 एन्टेनी जैसे कुछ नेता हैं जो आम जनता की तरह जीते हैं। यह वही कांग्रेस है जिसके नेता आज भी गांव-गांव में नव सामंत की भूमिका में हैं। केवल इकानोमिक क्लास के हवाई यात्रा मात्र से आर्थिक अनुशासन संभव नहीं है। इसके लिए अन्य और कई उपाय करने की जरूरत है। कांग्रेस का चरित्र सदा से दोहरा रहा है। सच तो यह है कि देश में लगातार महगाई बढ रही है, देश आर्थिक दृष्टि से कंगाल हो रहा है, नक्सलवाद धीरे धीरे अपना विस्तार बढ रहा है तथा चीन एवं पाकिस्‍तान सीमापार सामरिक मोर्चा खोलने के फिराक में है। ऐसी पस्थिति में अब केन्द्र सरकार क्या करे? इसलिए कुछ ऐसी बात जनता के सामने तो रखनी पडेगी जो जनता को प्रभावित करे तथा देश के मुख्य मुद्दों से जनता का ध्यान हटाता रहे। ऐसे ही कुछ दिनों तो स्वाईन फ्लू का फंडा चला, अब जब वह शांत हुआ तो नया फंडा अया, आर्थिक अनुशासन का। महंगाई बढ रही है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, सुरक्षा की ऐसी तैसी हो रही है। जब रेल यात्रा के दौरान राहुल स्वयं सुरक्षित नहीं हैं तो फिर आम आदमी की सुरक्षा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। इस परिस्थिति में कांग्रेस तथा केन्द्र सरकार को वास्तविक विषय पर ध्यान केन्द्रित करनी चाहिए, न कि फंतासी प्रचार में अपना समय और पैसा अपव्यय करना चाहिए।
अभी संसदीय चुनाव के बाद कांग्रेस अपने गठबंधन के साथ फिर से सत्ता में लौटी है। सरकार ने 100 दिनों की कार्य योजन भी बनाई। उसपर कितना काम हुआ, सरकार को अपने मातहत महकमों को पूछना चाहिए, क्योंकि जनता यह जानना चाहती है। यह कौन नहीं जानता कि मंत्री या अधिकारियों को जब विदेश भ्रमण की इच्छा होती है तो वे विदेश भ्रमण की सरकारी योजना बना लेते हैं। मंत्री और अधिकारी मुर्गी पालन, भेड पालन, सूअर पालन, न जाने किन किन विषयों का प्रशिक्षण लेने विदेश जाते हैं। इन तमाम बिन्दुओं पर पहले सरकार जांच बिठाए, फिर पता लगाये कि मंत्री या अधिकारियों के उक्त भ्रमण से देश या समाज को कितना लाभ हुआ है। अगर लाभ शून्य है तो उन मंत्रियों और अधिकारियों पर भ्रमण के दौरान हुए व्यय की वसूली की जाये, लेकिन ऐसा करेगा कौन। क्योंकि इससे तो फिर काम होने लगेगा। काम तो इस देश में होना नहीं चाहिए, हां, राजनीति जरूर होनी चाहिए, सो हो रही है। सच्च मन से कांग्रेस आर्थिक अनुशासन चाहती है तो कांग्रेस को फिर से पुनर्गठित करने की जरूरत है। क्या सोनिया जी कांग्रेस के पुनर्गठन का साहस दिखा पाएंगी?

चीन से डरने की नही लारने की जरुरत - गौतम चौधरी

चीन लगातार भारत के घेरेबंदी में लगा है। इस घेरेबंदी का एकमात्र लक्ष्य भारत को कमजोर करना है। नेपाल में हुरदंगी समूह माओवाद का समर्थन, अरूणाचल पर अधिकार जताना, अरब सागर और बंगाल की खाडी में चीनी हस्तक्षेप यह साबित करने के लिए काफी है कि चीन भारत का हित नहीं सोच रहा है। चीन भारत का हित सोच भी नहीं सकता है क्योंकि वहां दो प्रकार का विस्तारवादी चिंतन हावी है। पहला दुनिया का सबसे खतरनाक अवसरवादी जातीय चिंतन हानवाद का विस्तार और और दूसरा सेमेटिक सोच पर आधारित ईसाइयत से प्रभावित साम्यवादी का प्रभाव। इन दोनों चिंतनों के अबैध संबंधों पर आधारित चीन आज दुनिया के लिए एक नए प्रकार का खतरा उत्पन्न कर रहा है। चाहे वह हानवादी विस्तारवाद हो या फिर साम्यवादी साम्राज्यवाद, दोनों ही चिंतन दुनिया को तीसरे महायुद्ध की ओर ले जाने वाला है।
चीनी रणनीति के जानकारों का कहना है कि चीन इस्लामी दुनिया की ओर हाथ बढ रहा है। इस बात की चर्चा लगभग 90 साल पहले भारतीय स्वातंत्र समर के दौरान महान क्रांतिकारी बिपिन चन्द्र पाल के द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक हिन्दू रिव्यू में की गयी है। साथ ही श्री पाल ने अपनी भविष्यवाणी में यह भी जोडा है कि सम्भव है कि आने वाले समय में भारत के लिए यूरप के देश दोस्त की भूमिका में हों लेकिन चीन और इस्लामी दुनिया का गठजोड अन्ततोगत्वा भारत के खिलाफ जाएगा। आज चीन जिस ओर बढ रहा है उससे तो स्व0 बिपिन चन्द्र पाल की भविष्यवाणी सही साबित हाती दिखाई दे रही है। एक बार संयुक्त प्रजातांत्रिक गठबंधन सरकार के प्रतिरक्षा मंत्री और समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस ने चीन के चालों का मुखर विरोध करते हुए कहा था कि जिस देश के प्रत्येक चौक चौराहों पर फालतू चीनी व्यंजन बिकने लगा है उस देश को पाकिस्तान से नहीं चीन से सतर्क रहने की जरूरत है।
आज एक बार फिर भारत, चीन के निशाने पर है। चीनी सैनिक भारतीय सीमा का लगातार अतिक्रमण कर रहे हैं। चीनी जासूस पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यमार, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान जैसे भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में सक्रिय हो रहा है। इन देश में एक नये प्रकार के भारत विरोध को हवा देने की चीनी चाल सफल हो रही है। नेपाल में हिन्दी विरोध को इसी परिप्रेक्ष्य में लिया जाना चाहिए। भारतीय कूटनीति के द्वारा तिब्बत को चीनी साम्यवादी संघ का अभिन्न अंग मान लेने के बाद भी चीन इस बात से सहमत नहीं है कि अरूणाचल प्रदेश भारतीय संघ का हिस्सा है। लेह, लद्दाख, और सियाचीन का हवाई अड्डा चीनी सामरिक रणनीति के जद में है। विगत दिनों चीन ने अन्तरराष्ट्रीय आदर्श का अतिक्रमण करते हुए बयान दिया कि दलाई लामा का अरूनांचल यात्रा चीन में अलगाववाद को हवा देने के लिए एक सोची समझी रणनीति का नतीता है, और दलाई लामा की अरूणांचल यात्रा की छूट देकर भारत ने चीन के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप किया है। चीन जब पाकिस्तान के द्वारा प्रदत्त भारतीय भूमि पर सामरिक उपयोग के लिए सडक बनाता है तो वह अन्तरराष्ट्रीय कानून का उलंघन नहीं होता है लेकिन दलाई लामा एक नेक काम के लिए अरूणाचल जाते हैं तो वह चीन के गृह मामले में हस्तक्षेप की श्रेणी में आता है। यह चीन का कानून है जिसे भारत को मानना पडेगा क्योंकि चीन एक प्रभू राष्ट्र है तथा भारत उसके सामने कमजोर। भारत दलाई लामा को सुरक्षा प्रदान करने का बचन दिया है। यह भारती की विदेश नीति का अंग है। ऐसा भारत का इतिहसा रहा है। दुनिया जब जापान को परेशान कर रही थी तो दुनिया के प्रभू राष्ट्रों का विराध करते हुए भारत ने जापान का समर्थन किया। खुद चीन में साम्यवाद की स्थापना के बाद सबसे पहले भारत ने मान्यता उसे एक देश के रूप में मान्यता प्रदान किया। संयुक्त राष्ट्र संघ में भी भारत के समर्थन से ही चीन सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बन पाया। पाकिस्तानी अत्याचार से बांग्लादेश को मुक्त कराने में भारत की भूमिका को दुनिया जानती है। नेपाल में बरबर राणाशाही की सामाप्ति में भारत ने अभूतपूर्व भूमिका निभाई । भारत की विदेशनीति है कि दुनिया में किसी भी जाति, धर्म, समूह, संप्रदाय के लोगों पर अत्याचार नहीं होना चाहिए। तिब्बत के लोगों को न्याय दिलाना भारतीय लोकतांत्रिक संघ का घोषित ध्येय है। अब दलाई लामा धार्मिक काम से अरूणाचल जा रहे हैं तो चीन की आपति क्यों? चीन बिना भारत को बताये और विश्वास में लिए भारतीय सीमा पर सैन्य उपयोग के लिए सडक बनाया, पाकिस्तान में बंदरगाह के आधुनीकिकरण में चीन पैसा लगा रहा है, चीन सामरिक उपयोग के लिए बांग्लादेश में बंदरगाह विकसित कर रहा है। यही नहीं क्षद्म रूप से चीन तालिबान, पूर्वोतर के खुंखार आतंकी संगठन एनएससीएन, श्रीलंका तथा दक्षिण भारत में सक्रिय लिट्टे, भाारत के विभिन्न भागों में फैले माओवादी चरमपंथी समूह आदि कई भारत विरोधी आतंकी संगठनों को वित्तीय, हथियार और खुफिया सहायता उपलब्ध करा रहा है। सब कुछ जानते हुए भारत ने कभी चीन को यह नहीं कहा कि वह भारत के खिलाफ षडयंत्र कर रहा है, लेकिन दलाई लामा अरूणांचल जाना चीन को बरदास्त नहीं है।
इन तमाम घटनाओं और चीनी चालों से साबित होता है कि चीन भारत के खिलाफ जंग की तैयारी में लगा है। चीन को यह लग रह है कि भारत को परास्त करने के बाद वह दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर सकता है। इसलिए वह भारत पर आक्रमण की रणनीति बना रहा है। भारत को घेरने के लिए चीन न केवल सामरिक संतुलन बैठा रहा है अपितु भारत के अंदर एक ऐसे बुध्दिजीवियों को भी खडा कर रहा जो यह प्रचारित करे कि चीन भारत का नहीं अपितु भारत में सक्रिय प्रभू वर्ग का दुश्मन है। चीन की योजना के आधार पर कुछ बुध्दिजीवी सक्रिय भी हो रहे हैं। यह आज से नहीं चीन में स्थापित साम्यवादी व्यवस्था के समय से ही हो रहा है। पं0 सुन्दरलाल नामक एक कूटनीतिक अपने आलेख में लिखते हैं कि सन 62 की लडाई में चीन ने नहीं अपितु भारतीय सेना ने चीन पर आक्रमण कर दिया। चीनी फौज तो सराफत से भारतीय सेना का सैन्य आयुद्ध छीन उसे बिना कुछ कहे ससम्मान भारत लौट आने दिया था। सुन्दरलाल जो अपने आप को चीनी युद्ध के समय का महान राजनैयिक बता रहे हैं उन्होंने एक आलेख लिखा है। वह आलेख मेनस्ट्रीम नामक पत्रिका में 4 नवम्बर सन 1972 में प्रकाशित हुआ। सुन्दरलाल जी के आलेख को फिर से वीर भारत तलवार ने अपनी पुस्तक नक्सलबाडी के दौर में छापा है। इस आलेख के प्रकाशन का एक मात्र ध्‍येय यह साबित करना है कि चीन तो अपने जगह ठीक ही है भारत पश्चिमी देशों के अकसावे पर एक आक्रामक राष्ट्र की भूमिका अपना रहा है। यही नहीं चीन में नियुक्त भारत के राजदूत का भी सुर बदला हुआ है। भारतीय मीडिया लगातार यह कह रही है कि चीन भारत की ईंच दर ईंच जमीन हथिया रहा है लेकिन भारत के राजदूत इसे सरासर झूठ बता रहे हैं। वे चीन के सुर में सुर मिलाकर कहते हैं कि भारतीय मीडिया पश्चिमपरस्त हो गयी है। यह चीन और भारत को नाहक में लडाना चाह रही है। लेकिन जो लोग चीनी करतूत को देख कर आए हैं। जो लोग सीमा पर चीनी सैन्य हरकतों को पहचान रहे हैं उनकी बातों को कैसे झुठलया जा सकता है।
एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि पाकिस्तानी सीमा पर तैनात सैनिकों को चीनी सीमा पर तैनान करने की रणनीति संयुक्त राज्य अमेरिका की है। इससे पकिस्तान अपनी पूरी ताकत से तालिबान के खिलाफ लड पाएगा। इस तर्क में भी दम है। इसे अगर मान भी लिया जाए तो हर्ज क्या है। मध्य एशिया में सक्रिय पश्चिम की कूटनीति से भारत को फायदा उठाना ही चाहिए। तालिवान के सहयोग का पाईपलाईन काटने के लिए अमेरिका की रणनीति है कि चीन को भारत के साथ उलझाया जाये लेकिन आज न कल तो चीन भारत के साथ उलझेगा ही। अभी अमेरिका के साथ चीन की स्पर्धा शीत युद्ध में बदल की स्थिति में आ गया है। भारत को इसका लाभ उठाकर चीन पर दबाव बनाना चाहिए। मध्य एशिया में पश्चिमी हित से चीनी हित के टकराहत को भारत अपने भविष्य की कूटनीति बना सकता है। हालांकि यह तर्क चीन समर्थित मीडिया के द्वारा फैलाया गया एक भ्रम भी हो सकता है।
चीन भारत के अर्थतंत्र को खोखला करने के लिए जाली नोट के रैकेट को बढावा दे रहा है। चीन तमिल छापामारो के द्वारा चेन्नई में ड्रग हब विकसित करने फिराक में है। इसके कई प्रमाण मिले हैं। तमिल छापामार आजकल चीनी जासूसों के संपर्क में है। भारत के पास इस बात का पक्का प्रमाण है कि चीन दक्षिण पूर्वी एशिया के एक बडे भूभाग में उत्पन्न अफीम को अबैध तरीके से परिशोधित कर ड्रग बनाता है। हालांकि खुलम खुल्ला तो नहीं लेकिन चीनी माफिया इस ड्रग को अफ्रिका और यूराप के देशों में ले जाते हैं। करोडों के इस कारोबार में अब तमिल छापामार भी शमिल हो गया है। चीन ड्रग के द्वारा प्राप्त आमदनी दुनियाभर में अपने हितों के लिए आतंकवादी संगठनों में बांटता है। इसी प्रकार अबैध हथियारों के धंधे में चीन लगा है। भारत या दक्षिण एशिया में सक्रिय आतंकी समूहों को चीन लगातार हथियार उपलब्ध करा रहा है। विगत दिनों नकली दवा की एक बडी खेप चीन से अफ्रिकी देशों के लिए भेजा गया। दवाओं पर मेड इन इंडिया लिखा था। जांच के बाद पता चला कि यह दवा चीन के द्वारा भेजा गाया है। इस प्रकार चीन भारत को घाटा पहुंचाने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहता है।
ऐसी पस्थिति में चीन के खिलाफ भारत की क्या रणनीति होनी चाहिए और चीन को किस प्रकार घेरना चाहिए इसकी मुकम्मल योजना तो भारत को बनाना ही होगा। भारतीय कूटनीति वर्तमान चीनी ऐग्रेशन पर चीन के खिलाफ कूटनीतिक मोर्चा नहीं खोला तो चीन भारत को हडप लेगा। तब भारत अन्य चीनी प्रांतों के तरह केवल आंशू बहाने के अलावा और कुछ भी नहीं कर पाएगा। चीन जितना भयावह दिखता है उतना भयावह है नहीं। भारत उसे परास्त कर सकता है। याद रहे ड्रैगन के जबरे और चंगुत जरूर मजबूत होते हैं लेकिन ड्रैगन के रीढ की हड्डी कमजोर होती है। वह जितना देखने में खतरनाक लगता है उतना होता नहीं है। फिर ड्रैगन नामका कोई जीव धरती पर अब जीवित नहीं है। यह एक काल्पनिक अवधारना है। इस काल्पनिक भय को वास्तविक ताकत से ही जीता जा सकता है। भारत कमर कसे ड्रैगनी राक्षस को समाप्त करने के लिए दुनिया भारत के साथ होगी। दावे के साथ कहा जा सकता है कि चीन भारत की लडाई साधारण लडाई नहीं होगी। यह दुनिया का तीसरा महायुद्ध होगा और जिस प्रकार दूसरे महायुद्ध के बाद इजरायल को अपनी खोई भूमि मिली थी उसी प्रकार इस युद्ध में तिब्बत को अपनी खोई भूमि मिलेगी। भारत को तो मात्र इस युद्ध की अगुआई करनी है।

इसरत प्रकरण के बहाने नई राजनीति की सुगबुगाहट-गौतम चौधरी

गुजरात उच्च न्यायालय ने इसरत जहां केस में राज्य सरकार को स्टे दे दिया है। बावजूद इसके राजनीति तो होनी ही है, क्योंकि मामला गुजरात सरकार से संबंधित है और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी को केवल भाजपा के प्रतिपक्षी ही नहीं कुछ अपने लोग भी घेरने के फिराक में हैं। उन लोगों के लिए इस प्रकार का मामला ज्यादा महत्व रखता है। अब देखना यह है कि प्रमुख प्रतिपक्षी और मोदीवाद के घुर आलोचक कांग्रेस, इस मामले को लेकर क्या रणनीति अपनाती है।
प्रेक्षकों का मानना है कि लोकसभा चुनाव तथा राजकोट महानगर पालिका में हुई भाजपा की भारी हार के बाद मोदी परेशान हैं। उपर से इसरत प्रकरण ने मोदी को और दबाव में ला दिया है, ऐसी संभावना स्वाभाविक है। मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि मीडिया का एक खास वर्ग उन्हें राक्षस के रूप में प्रचारित कर रहा है। उन समाचार माध्यमों के लिए इसरत प्रकरण मजबूत हथियार साबित हो रहा है। ऐसे में नरेन्द्र भाई कौन सी चाल चलते हैं यह एक अहम प्रश्‍न है। भाजपा के अंदर हुए उठा पटक और कई प्रकार के विवाद के बाद मोदी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन राव भागवत से मिलना, फिर संघ के नजदीकी माने जाने वाले डॉ0 मुरली मनोहर जोशी का मोदी के साथ वार्ता यह साबित करने के लिए काफी है कि अब मोदी का गुजरात अभियान समाप्ति की ओर है। केन्द्र में मोदी की अहमियत बढ रही है। साथ ही भाजपा के पास ऐसी कोई छवि नहीं है जो देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं को एक बार फिर से जोड सके। ऐसी परिस्थिति में मोदी केन्द्रीय अभियान पर निकलने की रणनीति बना रहे हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए।
अब सवाल यह उठता है कि क्या इसरत मुठभेड प्रकरण मोदी की भावी राजनीति तय करने वाली होगी या सोहराबुद्दीन प्रकरण के तरह ही मोदी इस केस को भी एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर लेंगे? इन तमाम सवालों के घटाटोप में एक बार फिर गांधीनगर से लेकर दिल्ली तक की राजनीति में उष्‍णता महसूस की जा रही है। अब क्या होगा, गुजरात के मुख्य प्रधान की कुर्सी खतरे में है या फिर इस प्रकरण से भी वे उबर जाएंगे, ऐसे कई सवाल राजनीति के गलियारे में तैरने लगे हैं। फिलहाल न्यायालय को राजनीति का अखाडा बनाने के फिराक में प्रतिपक्षी जोर आजमाइस में लगे हैं। खबर का एक पहलू यह भी है कि आखिर एकाएक महानगर न्यायालय के न्यायाधीश की आख्या को सार्वजनिक क्यों कर दी गयी? सवाल गंभीर है और इसका जवाब किसी के पास नहीं है। तमांग के पास जाने वाले तमाम पत्रकारों को खाली हाथ ही लौटना पडा है। वे कुछ भी कहने से इन्कार कर हरे हैं।
इधर इसरत समर्थक समूह एकाएक हडकत में आ गया है। समूह अखबार से लेकर राजनीति तक को झकझोर रहा है। पत्रकार वार्ताएं हो रही है। समूह के मुखिया और पूर्व अवकास प्राप्त पुलिस महानिदेशक आर0 बी0 श्रीकुमार चीख-चीख कर कह रहे हैं कि गुजरात सरकार ने न केवल फर्जी मुठभेड करवाए अपितु सरकार के प्रवक्ता ने न्यायालय की अवमानना भी की है। न्यायालय की अवमानना पर तो न्यायालय को संज्ञान लेना अभी बांकी है लेकिन एक साथ कई मोर्चों का खुलना और उन मोर्चों पर स्वयंभू सिपहसालारों की मार्चेबंदी का कुछ रहस्य तो जरूर होगा। इस बार गुजरात सरकार भी ज्यादा उत्साहित नहीं है। मामले की गंभीरता को समझकर सरकार अपनी रणनीति बना रही है। सरकारी प्रवक्ता और काबीना मंत्री जयनाराण व्यास ने एक और खुलासा करते हुए कहा कि मात्र 20 दिनों के अंदर 600 पृष्टों की रिपोर्ट कैसे तैयार हो गयी? फिर इस रिपोर्ट के साथ ऐसी क्या बात है कि इतनी जल्दबाजी की गयी? श्री व्यास का कहना है कि मामला पेंचीदा है और मामले को साधारन तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए। व्यास को माननीय न्यायालय के द्वारा प्रस्तुत आख्या में राजनीति की गंध आ रही है। सरकारी प्रवक्ता ने न्यायालय की मंशा पर सीधे-सीधे आरोप तो नहीं लगाया है लेकिन कई प्रश्‍न ऐसे खडे किये जो रिपोर्ट की त्रुटि को इंगित करता है।
इसरत केस पर मानवाधिकारवादी और केस लड रहे समर्थकों को छोड कर कोई बडी राजनीतिक पार्टी खुल कर सामने नहीं आ रही है। इससे भी ऐसा लगता है कि अंदर खाने कोई नई रणनीति बनायी जा रही है। रणनीति का सूत्रधार कौन है और उस रणनीति के काट के लिए भारतीय जनता पार्टी और राज्य सरकार कौन सी रणनीति बना रही है यह तो भविष्य बताएगा लेकिन वर्तमान तमांग की रिपोट ने सत्ता पक्ष तथा प्रतिपक्ष को अपने अपने दायरे का हथियार तो दे ही दिया है। इस हथियार से कितनी लडाई लडी जाएगी, और लडाई का क्या प्रतिफल होगा इसपर अभी मीमांसा बांकी है लेकिन प्रकारांतर में गुजरात की राजनीति में इसरत केस का अध्याय कोई न कोई गुल जरूर खिलाएगा।