Saturday, August 29, 2009

जेहादियों के सामान ही खतरनाक हँ मओबाद - गौतम चौधरी

उडीसा में चरम वामपथियों ने नल्को बाक्साईड खादान पर आक्रमण कर 14 औद्योगिक सुरक्षा गार्ड के जवानों को मौत के घाट उतार दिया। बिहार और झारखंड में कम से कम 02 सुरक्षा कर्मियों को नक्सली हिंसा का शिकार होना पडा है। 15 वीं लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण में माओवादी उत्पात के कारण कम से कम 12 सुरक्षाकर्मियों सहित 18 लोगों की मौत हो गयी। माओवादियों ने आम चुनाव वहिष्कार की घोषणा की थी। छतीसगढ में सलवाजुडूम के प्रभावशाली नेता के भाई की हत्या कर दी गयी। कुल मिलाकर देखा जाये तो इस्लामी जेहादी आतंकवाद के समानांतर ही वामपंथी चरमपंथी देश और समाज को क्षति पहुंचा रहे हैं। बावजूद इसके वाम चरमपंथियों पर न तो सरकार शख्त है और न ही भारत का समाचार जगत ही यह मानने को तैयार है कि नक्सली हिंसा भी आतंकवाद के दायरे में आता है। यह ठीक नहीं है और आने वाले समय में देश की संप्रभुता के लिए यह सबसे बडी चुनौती साबित होने वाली है। विगत दिनों मीडिया जगत में आतंकवाद के प्रति दृष्टिकोण में भारी अन्तर आया है। मीडिया का एक बडा समूह यह मान कर चलता था कि बाबरी ढांचा ढहाए जाने या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के खडे होने से मुस्लिम समाज का एक बडा तबका असंतुष्ट है और यही कारण है कि भारत में इस्लामी जेहादी आतंकवाद का दायरा धीरे धीरे बढता जा रहा है, लेकिन इस सिध्दांत को तूल देने वाले अब बगल झांकने लगे हैं। आम मीडियाकर्मी इस सिध्दांत से सहमत नहीं है। मीडिया का एक बडा वर्ग अब यह मानने लगा है कि इस्लाम का चरम चिंतन ही इस्लामी समाज के नैजवानों को आतंक के लिए उकसाता है। इस सोच को मुम्बई हमले के बाद और बल मिला है। हालांकि मुम्बई हमले पर भी देश के कुछ बुध्दिजीवियों ने आम मीडिया कर्मियों की राय बिगारने में अपनी सक्रियता दिखाई। आनंद स्वरूप वर्मा और अजीज बर्नी जैसे पत्रकार ने तो मुम्बई हमले में पाकिस्तान को क्लिन चिट दे दिया लेकिन आम मीडियाकर्मी इस बात से सहमत नहीं हुआ कि मुम्बई हमला हिन्दुवादी संगठनों के साजिस का प्रतिफल है। इस बार हिन्दुवादी संगठनों को बदनाम करने वाली ताकत बेनकाब हो गयी और लाख चीखन के बाद भी राजेन्द्र यादव का गिरोह यह साबित करने में नामाम रहा कि मुम्बई हमले के पीछे आरएसएस लॉबी था।जिस प्रकार इस्लामी जेहादी आतंक के प्रति देश का मानस तेजी से बदला है उसी प्रकार मीडिया में इस बात के प्रचार की जरूरत है कि माओवादी आतंकवाद भी उतना ही खतरना है जितना इस्लामी जेहादी। मीडिया जगत और देश की सरकार को स्वीकारना लेनी चाहिए कि वामपंथी आतंक गरीबी और अमीरी की बढती खाई के कारण नहीं अपितु देश को अस्थिर करने वाली तथा विदेशी पैसों के द्वारा खडा किया गया एक कृत्रिम आतंकी ढांचा है जिससे गरीबों का कल्याण तो नहीं ही होगा उलट देश के कई टुकरे हो जाएंगे और भारतीय उपमहाद्वीप लंबे समय तक के लिए अशांत हो जाएगा। जेहादी आतंकी और चरम वामपंथियों में बेहद समानता है। इस बात से सहमती जताई जा सकती है कि किसी जमाने में एक पवित्र मकसद को लेकर कुछ नैजवाने ने बंदूक उठा लिया और जंगल चले गये, लेकिन नक्सलियों की वह पीढी समाप्त हो गयी है। अब वे लक्ष्य विहीन बदमाशों की टोली मात्र बन कर रह गये हैं। चौकाने वाली बात तो यह है कि चरम वामपथी संगठनों में अरबों रूपये चंदा का आता है लेकिन उसका कोई लेखा जोखा नहीं होता है। लेवी के नाम पर रंगदारी टैक्स का क्या किया जाता है उसका कही कोई हिसाब नहीं है इन संगठनों के पास। नक्सली नेताओं के बच्चे विदेश में पढ रहे हैं और आम वाममार्गी कार्यकर्ता आज भी बंदूक ढो रहे हैं। कुल मिलाकर भूमिगत साम्यवादी चरमपंथी संगठनों में विकृति और अराजकता का बोलबाला है। ये पैसे लेकर वोट बहिष्कार करते हैं और जिस पार्टी या व्यक्ति से पैसा मिलता है उसके लिए बूथ भी छापते हैं। इसके कई प्रमाण बिहार और झारखंड में देखने को मिला है। अब तो माओवादी समूह ईसाई मिशनरियों के इशारे पर काम करने लगा है। विगत दिनों उडीसा के संत लक्ष्मणानंद की हत्या में माओवादियों ने स्वीकरा की संत हिन्दुओं को भरकाता था इसलिए उसकी हत्या कर दी गयी। यह साबित करता है कि संत के खिलाफ वहां की जनता नहीं थी अपितु धर्म की खेती करने वाले ईसाई पादरियों के आंख में संत खटक रहे थे। यही कारण था कि संत की हत्या मिशनरियों के इशारे पर माओवादियों ने करयी। देश में ऐसे कई उदारण है जो माओवादियों को कठघरे में खडा करता है। यह साबित करने के लिए काफी है कि माओवादी अपने मूल सिध्दांत से भटक गये हैं और जिस प्रकार इस्लामी चरमपंथी जेहाद शब्द की गलत मिमांशा में लगे हैं उसी प्रकार साम्यवादी चरमपंथी भी वर्ग संघर्ष की गलत व्याख्या कर भोली भाली जनता को न केवल उकसाते है अपितु उसका शोषण भी करते हैं।इस विषय पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए कि जेहादी आतकियों का सबसे बडा केन्द्र अफगान और पाकिस्तान में चीनी जासूस सक्रिय है। तालिबान, अमेरिकी युध्द के बाद कमजोर हो गया था लेकिन चीनी सहायता और पाकिस्तानी प्रशिक्षण ने उसे फिर से जिन्दा कर दिया है। जेहादी आतंकियों का नया क्लोन चीन में तैयार हो रहा है। इन आतंकियों को पहले रूस ने संपोषित किया, फिर रूस के खिलाफ अमेरिका ने उन्हें अपना हथियार बनाया और आज विश्व में अपना दबदबा बढाने के लिए चीन जेहादियों को हवा दे रहा है। माओवादी चरमंथी भी चीन की ही देन है। भारत में माओवादी चरमपंथी, ईसाई मिशनरी और जेहादी आतंकी एक ही योजना पर काम कर रहे हैं। सेमेटिक चिंतन समूह की योजना से भारतीय उपमहाद्वीप को अफ्रिका बनाने का प्रयास किया जा रहा है और चीन इस पूरे षडयंत्र का नेतृत्व कर रहा है। भारत की कूटनीति और विदेश नीति के साथ ही आन्तरिक सुरक्षा की नीति में माओवादी आतंकवाद को भी जेहादी आतंकवाद की श्रेणी में लाया जाना चाहिए। जिस प्रकार देश की मीडिया ने जेहादी आतंकियों को नकार दिया है उसी प्रकार मीडिया को माओवादी आतंकवाद के प्रति भी अपनी स्पष्ट नीति बनानी होगी। हां मिशनरियों के सेवा भाव के कारण और मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को ध्यान में रखकर उसके खिलाफ नकारात्मक दृष्टिकोण रखना ठीक नहीं होगा लेकिन ईसाई मिशनरियों के आय-ब्यय पर गंभीर नजर रखने की जरूरत है। याद रहे जहां जहां ईसाई मिशनरियों की पहुंच बढी है वहां आज माओवादी षडयंत्र सहज देखा जा सकता है। भारत की जासूसी संस्था से मिले संकोतों में इस बात का स्पष्ट जिक्र किया गया है कि माओवादी संरचना भारतीय लोकतंत्र, भारतीय जीवन पध्दति, भारत के सार्वभौमिकतावादी सोच से अलग है। माओवादी यह भी मानने को तैयार नहीं है कि भारत एक राष्ट्र है। वे भारत को कई संस्कृतियों का समूह मानते हैं और सोवियत रूस की तरह भारत को एक साम्यवादी संघीय ढाचे में ढालना चाहते हैं। हालांकि माओवादियों के लिए चीन प्रेरणा का श्रोत रहा है लेकिन चीन की भौगोलिक परिस्थिति और सामाजिक संरचना भारत से भिन्न है इसलिए साम्यवादी चरमपंथी भारत को साम्यवादी संघीय ढांचा देना चाहते हैं लेकिन इससे पहले वे टुकरों में बांच कर भारत पर कब्जे की योजना बना रहे हैं। यह खतरनाक है। टुकरों में बटने के बाद उपमहाद्वीप में कितना रक्तपात होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। फिलवक्त विदेशी ताकत इस बात पर एक मत है कि पहले भारत के वर्तमान ढंचे को ढाहा जाये। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में माओवाद या फिर जेहादी आतंकवाद का कही कोई स्थान नहीं है लेकिन माओवादी चरमपंथी इससे सहमत नहीं हैं। वे लगातार इस योजना पर काम कर रहे हैं कि भारत का विभाजन हो और भारत का लोकतंत्रात्मक संघीय ढांचा ध्वस्त हो जाये। फिर भारत को अपने ढंग से ढालने में सहुलियत होगी। जोहादी समूह भी कामोबेस यही चाहता है। जहां जेहादी एक खास संप्रदाय को अपना हथियर बनाया है वही चरम वामपंथियों ने एक विचार का चोला ओढ कर भारत में षडयंत्र कर रहा है।
इस पूरी योजना को समझकर जिस प्रकार भारतीय मीडिया ने जेहादी आतंकियों के प्रति रवैया अपनाया है उसी प्रकार माओवादी चरमपंथियों के प्रति भी अपनाने की जरूरत है। चाहे चरमपंथ किसी का हो उसके प्रति सहज संवेदना रखना भारत के लोकतंत्रात्मक मूल्यों के साथ अपराध करना है। हम एक सफल लोकतंत्रात्मक गणतंत्र में जी रहे हैं। यहां हर को अपनी बात रखने और अपने ढंग से काम करने, पूजा करने का अधिकार प्राप्त है। इस स्वतंत्रता को कोई छीनता है तो उसका डटकर विरोध होना चाहिए। साम्यवाद गरीबी और अमीरी की लडाई का चिंतन नहीं है। याद रहे यह विशुध्द भौतिकवादी चिंतन है। यह चिंतन भी उतना ही खतरनाक है जितना जेहादी आतंकवाद।

गाँधी, लोहिया के रास्ते चला नेपाली मओबाद - गौतम चौधरी



एक बार फिर नेपाली माओवादियों ने नेपाल को अस्थिर करने की योजना बनाई है। सुना है इस बार चरमपथीं आन्दोलन का नेतृत्व बाबूराम भट्टराई कर रहे हैं। हालांकि माओवादी आन्दोलन की रूप रेखा लोकतंत्रात्मक ही दिखाया जा रहा लेकिन माओवादी इतिहास को देखकर सहज अनुमान लेगाया जा सकात है कि आन्दोलन की दिशा हिंसक होगी। इस बार के आन्दोलन में माओवादी चरमपंथियों ने दो मिथकों को तोडा है। यह पहली बार हो रहा है जब माओवादी आन्दोलन का नेतृत्व पुष्पकमल दहाल (प्रचंड) नहीं कर रहे हैं। इसके पीछे का कारण क्या है और पुष्पकमल की आगामी योजना क्या है यह तो मिमांशा का विषय है लेकिन इस बार के माओवादी घेरेबंदी से साफ जाहिर होता है कि नेपाल के माओवादी गिरोह में पुष्पकमल की ताकत घटी है। माओवादियों ने इस बार बुलेट के स्थान पर जन समर्थन और गांधीवादी रवैया अपनाने की योजना बनाई है। नेपाल में यह भी माओवाद का एक प्रयोग ही माना जाना चाहिए। इसलिए एक तरह से देखा जाये तो नेपाल का माओवाद अब एक नई धारा पर काम करना प्रारंभ कर दिया है। हालांकि इस विषय पर तुरत मन्तव्य देना जल्दबाजी होगी, क्योंकि माओवादी अतीत के जानने वाले माओवाद के इस नवीन संस्करण पर भरोसा नहीं करते। वैसे नेपाल का माओवादी संगठन लगातार भट्टराई के नेतृत्व में कुछ इसी प्रकार का करने की योजना बनाता रहा है लेकिन चीनी दबाव और ईसाई मिशनरियों के कारण नेपाल का माओवाद नवीन संस्करण में अभी तक नहीं ल पाया। भट्टराइवाद कितना प्रभावी होगा और कब तक प्रचंड चुप बैठेंगे यह तो समय बताएगा लेकिन जो प्रयोग नेपाल के घुर वामपंथी कर रहे हैं उससे कुछ सकारात्मक होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकात है।
विगत दिनों नेपाल के राष्ट्रपति डॉ0 रामबदन यादव की सूझबूझ के कारण नेपाल की राजनीति पर प्रचंडवादी या इसे चीनी अधिनायकवाद भी कहा जा सकता है हावी नहीं हो सका। लाख चाहने के बाद भी माओवादी सरकार सेना प्रमुख को हटाने में कामयाब नहीं हो पाये और नेपाल, अधिनायकवादी चरम साम्यवादी चुगुल से मुक्ति पाने में सफलता हासिल कर ली। इसके पीछे नेपाल की जनता की सकि्रयता और नेपाली समाज में सांस्कृति संवेदना की महत्वपूर्ण भूमिका को माना जाना चाहिए। आखिर नेपाल की जनता ने प्रचंडवादी चरमपंथ को क्यों नहीं स्वीकारा, इसकी मिमांश से स्पष्ट हो जाता है कि प्रचंडवादी चरमवाद नेपाल की नियती नहीं है। आज चीन में भी इस प्रकार के चरमपंथ का विरोध हो रहा है और चीन ने तो डेग के समय से ही पूंजी के केन्द्रीकरण की छूट दे दी थी। आज चीन में साम्यवाद नहीं अपितु पूंजवादी साम्यवाद है। चीन के साम्यवाद को परिभाषित करने के लिए इतना कहना ठीक होगा कि चीन में अन्य जातियों के लिए साम्यवाद है लेकिन हानों के लिए चीन में पूंजीवाद है।
नेपाल में जब प्रचंड ने सत्ता सम्हाला तो दो प्रकार का अन्तरविरोध सामने आया। नेपाल की बहुसंख्यक जनता ने यह सोचना प्रारंभ कर दिया कि अब नेपाल निरीश्वरवादी हो जाएगा। यहां भी मठमंदिरों पर पर साम्यवादी सेना आक्रमण करेगी और सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर नेपाली सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का गला घोट दिया जाएगा। देखते देखते नेपाल चीनी रंग में रंग जाएगा और नेपाल की स्थिति या तो उत्तर कोरिया जैसी होगी या फिर तिब्बत की तरह नेपाल चीन का गुलाम हो जाएगा। दुसरे प्रकार के जो लोग जिन्होंने प्रचंड के सत्तारोहन में प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका निभाई थी उन्होंने यह मान लिया कि अब नेपाल भी देखते देखते परिवर्तित हो जाएगा। यहां परिवर्तन की हवा वहने लगेगी। यहा विकास का नया कीर्तिमान स्थापित होगा। नेपाल अपने पुराने वैभव में लौटेगा। यहां की गरीबी समाप्त हो जाएगी। यहां के लोगों को छोटे मोटे काम के लिए भारत नहीं जाना पडेगा। लेकिन इन दोनों प्रकार के चिंतन करने वाली नेपाली जनता को प्रचंड ने निराश कर दिया। प्रचंड नेपाल में चीनी नीति पर काम करने लगे। उन्होंने नेपाली राजनीति को अपने पक्ष में करने के लिए मलाइदार पदों पर अपने संबंधियों को बैठाने का प्रयास किया। नेपाल की दसा बिगडने लगी, नेपाल की आर्थिक स्थि्ति खडाब होने लगी। यही नहीं प्रचंडपंथियों के आर्थिक शोषण से नेपाली जनता त्रस्त होने लगी। कई प्रकार के आर्थिक व्यभिचार का आरोप प्रचंड के उपर लगा। इन तमाम गतिरोधों का सामना करने और माओवादी गिरोह के गुरिल्लों को अपने पक्ष में करने के लिए प्रचंड ने कई चाल चली लेकिन सब में असफल होते गये। तब प्रचंडपंथियों ने चीन तथा ईसाई मिशनरियों के इसारे पर एक नयी चाल चली और बाबा पशुपत्तिनाथ मंदिर पर आक्रमण कर दिया। यहां भी प्रचंड को मुह की खानी पडी। अब प्रचंड सेना पर माआवादी गुरिल्ला गिरोह को समायोजित करने का दबाव डालने लगा। इसपर सेना ने अपनी संरचना में छेडछाड से साफ इन्कार कर दिया। तब प्रचंड ने बिना किसी संवैधानिक कारण के सेना प्रमुख को हटाने की घोषणा कर दी। अब सर से उपर पानी बहता देख देश के सर्वोच्च नेता राष्ट्रपति डॉ0 यादव ने हस्तकक्षेप किया और प्रधानमंत्री प्रचंड की इस घोषणा को गैरसंवैधानिक बताया। अबतक इस बात का पता प्रचंड को भी हो गया था कि नेपाल में चीनी शासन बरदास्त नहीं किया जा सकता।
अब नेपाली माओवादी चरंपंथी गिरोह को यह आभास हो गया है कि महज मुट्ठीभर लुटेरों और सिरफिरे हुडदंगियों से सत्ता पर कब्जा तो जमाया जा सकता है लेकिन सत्ता का सही ंग से संचालन तथा देश की स्थिरता जनता की स्वीकृति के बाद ही संभव है। वर्तमान आन्दोलन से यह लग रहा है कि नेपाल का माओवाद एक नया स्वरूप ग्रहण कर रहा है। हालांकि यह नेपाली माओवाद के पीछे काम करने वाली शक्ति की साजिस भी हो सकती है लेकिन प्रचंडपथ का कमजोर होना और भट्टराइपथ की मजबूती इस बात का सबूत है कि नेपाली माओवादी गिरोह को अब यह एहसास हो गया है कि गिरोहबंदी से काम चलने वाली नहीं है। खैर नेपाल का माओवाद यदि भारतीय ाचां ग्रहण किया और नेपाल में भट्टराइवाद सफल रहा तो यह केवल नेपाल के लिए ही नहीं अपितु पूरे दक्षिण एशिया के लिए शुभ होगा। नेपाली माओवाद में लोहिया और गांधी का समावेश सचमुच नेपाल ही नहीं भारत के लिए शुभ संकेत है। इस परिवर्तन की आहट को भारतीय माओवादियों को भी समझना चाहिए। साथ ही यह मान लेना चाहिए कि विदेशी पैसे से चलाया जा रहा आन्दोलन कभी सफल नहीं हो सकता है। अभीतक भारत और नेपाल का माओवाद चीन और ईसाई मिशनरियों के इशारे पर चल रहा है। बाबूराम भट्टराई ने माओवादियों को रास्ता दिखाया है। नेपाल या भारत में माओवादियों को जनकल्याण के लिए कुछ करना है तो अपनी योजना में लोहिया,गांधी दीनदयाल को भी शमिल करना होगा।