Thursday, October 15, 2009

हिन्द स्वराज में दुनिया के सभी समस्याओं का समाधान नहीं है – गौतम चौधरी

हिन्द स्वराज पर टिप्पणी करने से पहले इस देश के अतीत और अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि को खंगाला तो लगा कि जो गांधी कह रहे हैं वह हम पीढियों से करते आ रहे हैं। मेरा ननिहाल दरभंगा से सीतामढी की ओर जाने वाली छोटी लाईन के रेलवे स्टेषन कमतौल में है। मेरे मामा साम्यवादी थे और भारतीय कौम्यूनिस्ट पार्टी से जुडे थे। मेरा बचपन वहीं बीता लेकिन बीच बीच में अपने घर और अपने पिताजी के नलिहाल कैजिया भी जाता आता रहता था। कैजिया के बडे किसान रामेश्वर मिश्र हमारी दादी के भाई थे। कैंजिया में रहने से सामंती प्रवृति से परिचय हुआ और कमतौल में रहने से साम्यवाद का ककहरा पढा। फिर मेरे दादा समाजवादी धरे से जुडे रहे और उस जमाने के समाजवादी कार्यकर्ता सिनुआरा वाले गंगा बाबू हमारे यहां आया जाया करते थे। इन तमाम पृष्ठिभूमि में मेरे व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है। डॉ0 राम मनोहर लोहिया की किताब से मैं बचपन से परिचित हूं। हिन्द स्वराज मैंने बाद में पढी। कुल मिलाकर जिस प्रकार के पृष्ठभूमि से मैं आता हूं उसमें गांधी से कही ज्यादा अपने आप को लोहिया के निकट पाता हूं। हिन्द स्वराज से असहमत नहीं हूं लेकिन गांधी के इस गीता पर पूरे पूरी सहमत भी नहीं हूं। मेरी दृष्टि में गांधी का चिंतन जडवादी और भौतिकवादी जैन चिंतन से प्रभावित है। जैन चिंतन के उस धारा से तो सहमत हूं कि दुनिया एक ही तत्व का विस्तार है लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता कि दुनिया जैसी है वैसी ही रहेगी और अनंतकाल तक चलती रहेगी।

सच पूछो तो गांधी के चिंतन में भारी द्वंद्व है। गांधी ने हिन्द स्वराज में अंग्रेजी सम्यता को बार बार नकारा है लेकिन जब भारत के प्रधानमंत्री के पद पर चयन की बात होती है तो गांधी अंग्रेजी सभ्यता के पैरोकार पं0 जवाहरलाल नेहरू का चयन करते हैं। इसे आप क्या कहेंगे? जिस अहिंसा को गांधी और आज के गांधीवादी हथियार बनाने पर तुले हैं वह अपने आप में एक माखौल बन कर रह गया है। अब देखिए न संयुक्त राज्य अमेरिका देखते देखते दो सम्प्रभु राष्ट्र को मिट्टी में मिला दिया और उस देश का राष्ट्रपति कहता है कि हम तो गांधी के बोए बीज हैं। कोई बताए कि क्या गांधी के अहिंसा से भारत को आजादी मिली? पूरी दुनिया अगर एक ओर खडी होकर यह कहे कि गांधी के अहिंसा ने भारत को आजादी दिलाई तो भी मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं होउंगा कि गांधी के अहिंसक सिंध्दांत के कारण भारत आजाद हुआ। ओबामा के द्वारा कहा गया कि गांधी के साथ रात का भोजन करना चाहुंगा यह एक छालावा है। ओबामा ही नहीं, अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति अपने मन की बात न कहता है और न ही कर सकता है। वह अमेरिका की बात करता है और अमेरिका का मतलब है उत्पाद, उपभोग और विनिमय, जहां केवल और केवल उपभोगतावाद हावी है।

गांधी अपनी किताब हिन्द स्वराज में लिखते हैं कि हम भारत को इग्लैंड नहीं बनाना चाहते हैं। फिर लिखते हैं कि इग्लैड का पार्लियामेंट बांझ और वेश्या है। औद्योगिकरण को हिंसा मानने वाले गांधी भारत को जिस सांचे में ढालना चाहते हैं वह सांचा खतरनाक है और भारत को उस ढांचे में ढाला ही नहीं जा सकता है। हां, स्वयं पर नियंत्रण, संयम आदि गांधी के आदर्श तो ठीक हैं लेकिन इसका घालमेल राजनीति में नहीं किया जा सकता है। किसी देश पर कोई न कोई आक्रमण करता ही है। राष्ट्र को क्षति पहुंचाने वाली शक्ति से लोहा लेने के लिए शक्ति का संग्रह जरूरी है। इसके लिए संयम भी जरूरी है लेकिन आज अहिंसा को जिस रूप में प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है, उससे एक पूरे तंत्र को चला पाना संभव नहीं है। कोई आक्रांता हमारे संसाधनों को लूटे और हम भूखे मरें फिर यह कहें कि अहिंसा ही मेरा परम धर्म है तो नहीं चलेगा। भारत की गुलामी का सबसे बडा कारण भारतीय समाज का अहिंसक होना है। हमने अपने समाज की संरचना इस प्रकार कि की वह संतुष्ट होता चला गया। एक गांव अपने आप में देश हो गया। इसके फायदे तो हैं लेकिन इसस घाटा भी कम नहीं है। फिर एक गांव को दुसरे गांव से मतलब ही नहीं रहा। देश के दुश्मन आए एक गांव पर आक्रमण किया और दुसरा गांव देखता रहा। नालंदा का विश्वविद्यालय इसलिए जला क्योंकि उस विश्वविद्यालय के चारो ओर विश्वविद्यालय के हित की चिंता करने वाले लोग नहीं थे। विश्वविद्यालय से स्थानीय जन को कोई फायदा नहीं पहुंच रहा था लेकिन चारो तरफ के किसानों को अपने फसल का आधा भाग विश्वविद्यालय को देना पडता था। फिर पडोस के किसान विश्वविद्यालय के हित की चिंता क्यों करें? गांधी का दर्शन कुछ इसी प्रकार का दर्शन है। फिर गांधी संस्कृति और सम्यता को घालमेल करते हैं। इसलिए इस दिष को सबसे अधिक समझने वाला कोई है तो वह डॉ0 राम मनोहर लोहिया है। गांधी के त्याग और तपष्या के कारण लोहिया ने गांधी का इज्जत तो किया है लेकिन लेहिया ने गांधी का कभी समर्थन नहीं किया। फिर इस देश को और बढिया ढंग से समझा तथा समझाने का प्रयास किया पं0 दीनदयाल उपाध्याय ने। यह देश संघीय संरचना का देश हो ही नहीं सकता है। मैं जब उत्तराखंड में था तो वहां भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता मनोहर कांत ध्यानी के संपर्क में आया। उत्तराखंड के ध्यानी तेलंग ब्राह्मण हैं। वे आज से लगभग 1000 वर्श पहले वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए गढवाल आए। पं0 ध्यानी का कहना है कि दक्षिण से चलकर एकदम निर्जन भूभाग में आना और फिर वहां एक सांस्कृतिक संरचना और धार्मिक आस्था की रचना करना यह एकात्मता को प्रदर्षित करता है। इसलिए इस देश को संघों का समूह नहीं कहा जा सकता है यह देश एकात्म संरचना का देश है क्योंकि इस देश में जो सांस्कृतिक संरचना दक्षिण में है वही उत्तर में भी है। हो सकता है कि कुछ लोगों ने अपनी मान्यता बदल ली हो लेकिन आज भी उनके अंदर वो मान्यताएं लगातार जोड मारती है जो उनको अपने पूर्वजों से प्राप्त हुआ है। तभी तो मुसलमान मजार को पूजने लगे हैं और ईसाइयों ने मांता मरियम का मंदिर बनाना प्रारंभ कर दिया।

गांधी सत्य की बात करते है। सत्य क्या है? इस पर भयानक विवाद है। हम किसी वस्तु को देखते हैं फिर उसकी व्याख्या करते हैं। सबसे पहले तो किसी वस्तु को हम पूरा देख नहीं पाते, फिर शब्दों में वह सामर्थ नहीं है कि वह किसी वस्तु की सही व्याख्या कर ले। तो फिर गांधी किस सत्य की बात कर रहे हैं? सत्य एक सापेक्ष सत्य है। फिर सत्य को हम कैसे आत्मसात कर सकते हैं। बडी मषीन और उद्योगों को गांधी हिंसा मानते थे। आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसा संभव है क्या? गांधी का चिंतन सवासोलह आने अतीत जीवी है। जो लोग आज के समय में गांधी की प्रसांगिकता के गीत गा रहे हैं वे मर्सिया गाने के अलावा और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा कहते हैं कि आज के अमेरिका की जड भारत में है। ओबामा किस अमेरिका की बात कर रहे हैं, उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए। अगर वे अमेरिका देश की बात कर रहे हैं तो उसकी जड भारत में नहीं इग्लैंड में होनी चाहिए। हां, ओबामा को राष्ट्रपति बनाने वाले अमेरिका की जड भारत में हो सकता है। लेकिन ओबामा के महज राष्ट्रपति बन जाने से क्या अमेरिका में परिवर्तन आ जाएगा? अमेरिका एक ऐसा देश बन गया है जहां स्वंग गांधी जाकर बस जाए तो वे गांधी नहीं रह सकते। आज का अमेरिका दुनियाभर के भौतिकवादियों, उपभोक्तावादियों का मक्का और लेनिनग्राद बनकर उभरा है। भारत को बडगलाने के लिए अमेरिकी व्यापारी ओबामा के मुह से गांधी गांधी कहलवा रहे हैं।

गांधी के हिन्द स्वराज से दिशा ली जा सकती है लेकिन वह आदर्श नहीं हो सकता है। इस देश को खडा करना है तो गांधी से ज्यादा महत्व का विचार लोहिया का है, उसे अपनाना होगा, फिर दीनदयाल ने उसे और ज्यादा स्पष्ट कर दिया है। देश के संसाधनों पर राजसत्ता का नहीं समाज का अधिकार होना चाहिए। समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन सरकार पर नियंत्रण रखे। सरकार का काम वाह्य सुरक्षा है तथा नीतियों का निर्धरण है। तेल बेचना, गाडी चलाना और बैंक चलाना सरकार का काम नहीं है। ऐसा समझ कर देश को खडा करना चाहिए। गांधी को पूरे पूरी कदापि ग्रहण नहीं किया जा सकता है और न ही हिन्द स्वराज में दुनिया के सभी समस्याओं का समाधान है। जैसे एक कर्मकांडी ब्रांह्मण दुनिया के सभी समस्याओं का समाधान वेद में ढुढता है और मौलवी कुरान तथा साम्यवादी दास कैपिटल में उसी प्रकार गांधी के हिन्द स्वराज में गांधीवादी सभी समस्या का समाधान ढुंढने का प्रयास करने लगे हैं जिसे सही नहीं ठहराया जा सकता है। संक्षेप में दुनिया को शांति पहुंचाने वाला दर्शन जिसे कहा जाता है वह बौध दर्शन दुनिया में सबसे ज्यादा हिंसा करने वाला दर्शन साबित हो चुका है। जैनियों ने हजारों ब्रांह्मणों की हत्या की है और ब्रांह्मणों ने हजारों बौध्द तथा जैनियों को मौत के घाट उतारा है। इस परिस्थिति में गांधी को हम कहां प्रसांगिक मानते हैं इसपर लंबी बहस की गुंजाईस है। ऐसे मैं गांधी के हिन्द स्वराज में मानव का हित जरूर देखता हूं लेकिन दुनिया की समस्याओं का समाधान हिन्द स्वराज से नहीं हो सकता है। न ही भारत को उसके आधार पर खडा ही किया जा सकता है।

Friday, October 2, 2009

चीनी कुटनीतिक आक्रमण और साम्यवादी खटराग - गौतम चौधरी

खबरदार चीन के खिलाफ कुछ बोले तो जन-अदालत लगाकर नाक, कान, हाथ, पैर आदि काट लिए जाएंगे। वर्ग-शत्रु घोषत कर अभियान चलाया जाएगा। जुवान खोली तो हत्या भी की जा सकती है। याद रहे चाहे चीन कितना भी भारत के खिलाफ अभियान चलाये कोई कुछ कह नहीं सकता है, बोल नहीं सकात है। इस देश में साम्यवादियों के द्वारा चीनी कानून लागू किया जाएगा। पश्चिम बंगाल की तरह भारतीय लोकतंत्र की हत्या होगी और उसके स्थान पर बस साम्यवादी गिरोह देश पर शासन करेंगे। सबकी जुबान बंद कर दी जाएगी और कोई चूं शब्द बोला तो उसे गरीबों का दुश्मन घोषित कर हत्या कर दी जाएगी। चीनी साम्यवादी आतंक के 60वें सालगिरह पर यह फरमान जारी किया है देश के साम्यवादियों ने। साम्यवादी चरमपंथी 3 अक्टूबर से चीन के खिलाफ बोलने वालों को मौत के घाट उतारने का अभियान चलाने वाले हैं। भले पश्चिम बंगाल में माओवादियों और साम्यवादी सरकार के बीच दोस्ताना लडाई चल रही हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर दोनों के बीच समझौता है। चीन को अपना आदर्श मानने वाली कथित लोकतंत्रात्क पार्टी माक्र्सवादी काम्यूनिस्ट पार्टी और भारतीय काम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) एक ही आका के दो गुर्गे हैं। भले चीन भारत के खिलाफ कूटनीतिक युद्ध लड रहा हो लेकिन इन दोनों साम्यवादी धरों का मानना है कि चीन भारत का शुभचिंतक है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का नम्बर एक दुश्मन।

चीन भारत के खिलाफ पूरी ताकत से कूटनीतिक अभियान चला रखा है लेकिन भारतीय साम्यवादी, चीनी वकालत पर आमादा है। देश के सबसे बडे साम्यवादी संगठन के नेता का. प्रकाश करात ने चीन के बनिस्पत देश के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ज्यादा खतरनाक बताया है। अपनी पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के ताजा अंक में उन्होंने लिखा है कि देश की कारपोरेट मीडया, संयुक्त राज्य अमेरिका, दुनिया के हथियार ऐजेंट और आरएसएस के गठजोड के कारण चीन के साथ भारत का गतिरोध दिखाई दे रहा है, वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं है। का. करात के ताजे आलेख का कुल लब्बोलुआब है कि चीन तो भारत का सच्चा दोस्त है लेकिन आरएसएस के लोग देश के जानी दुश्मन है। शुक्र है कि का. करात ने अपने कार्यकर्ताओं को आरएसएस के खिलाफ अभियान चलाने का फरमान जारी नहीं किया है। हालांकि साम्यवादियों के सबसे बडे दुश्मन के रूप में आरएसएस चिन्हित है। गाहे बगाहे ये उनके खिलाफ अभियान भी चलाते रहते हैं। अभी हाल में ही संत लक्ष्मणानंद की हत्या साम्यवादी ईसाई मिशनरी गठजोड का प्रमाण है। केरल में, आंध्र प्रदेश में, उडीसा में, बिहार और झारखंड में, छातीसगढ में, त्रिपुरा में यानी जहा साम्यवादी हावी हैं वहां इनके टारगेट में राष्ट्रवादी हैं। साम्यवादी कहे या नहीं कहे लेकिन आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्या इनके एजेंडे में शमिल है। देश की स्मिता की बात करने वालों को अमेरिकी एजेंट ठहराना और देश के अंदर साम्यवादी चरंपथी, इस्लामी जेहादी तथा ईसाई चरमपंथियों का समर्थन करना इस देश के साम्यवादियों की कार्य संस्कृति का अंग है।

चीनी फरमान से अपनी दिनचर्या प्रारंभ करने वाले ये वही साम्यवाद हैं जिन्होंने सुभाष चंद्र बोस को तोजो का कुत्ता कहा था, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने दिल्ली दूर और पेकिंग पास के नारे लगाते रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने सन 62 की लडाई में आयुध्द कारखानों में हडताल का षडयंत्र किया था, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने कारगिल की लडाई को भाजपा संपोषित षडयंत्र बताया था, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने पाकिस्तान के निर्माण को जायज ठहराया था, ये वही साम्यवादी है जो देश को विभिन्न संस्कृति का समूह मानते हैं, ये वही साम्यवादी हैं जो यह मानते हैं कि आज भी देश गुलाम है और इसे चीन की ही सेना मुक्त करा सकती है, ये वही साम्यवादी हैं जो बाबा पशुपतिनाथ मंदिर पर हुए माओवादी हमले का समर्थन कर रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जो महान संत लक्ष्मणानंद सरस्वती को आतंकवादी ठहरा रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जो बिहार में पूंजीपतियों से मिलकर किसानों की हत्या करा रहे हैं, ये वही साम्यवादी हैं जिन्होंने महात्मा गांधी को बुर्जुवा कहा लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक सघ के माथे ऐसे कलंक नहीं लगे है। फिर भी साम्यवादी करात को चीन नजदीक और राष्ट्रवादी दुश्मन लगने लगे हैं। यह करात नहीं चीन का एजेंडा भारतीय मुंह से कहलवाया जा रहा है। आलेख की व्याख्या से साफ लगता है कि करात सरीखे साम्यवादी चीनी सहायता से भारत के लोकतंत्र का गला घोटना चाहते हैं। भारत की काम्यूनिस्ट पार्टी माओवादी ने अपने ताजे बयान में कहा है कि हमें किसी देश का एजेंट नहीं समझा जाये लेकिन उसके पास से जो हथियार मिल रहे हैं वे चीन के बने हैं। इसका प्रमाण विगत दिनों मध्य प्रदेश पुलिस के द्वारा चलाये गये अभियान के दौरान मिल चुका है। चीन लगातार अरूणांचल, कश्मीर, सिक्किम पर विवाद खडा कर रहा है, नेपाल में भारत के खिलाफ अभियान चला रहा है, पाकिस्तान को भारत के खिलाफ भडका रहा है, अफगानिस्तान में तालिबानियों को सह दे रहा है फिर भी का0 करात के नजर में चीन भारत का सच्च दोस्त है। आज पूरी दुनियां ड्रैगन के आतंक से भयभीत है लेकिन भारतीय साम्यवादियों को ड्रैगन का खौफ नहीं उसकी पूंछ पर लगी लाल झंडी दिखई दे रही है। पेकिंग को साम्यवादी मक्का और चीन को साम्यवादी शक्ति का केन्द्र मानने वाले भारतीय साम्यावादी गिरोह के सरगना का आलेख इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि एक ओर जहां चीन अपने आतंक और साम्यवादी साम्राज्य का 60 वां वर्षगांठ मना रहा है वही दूसरी ओर चीन भारत के उत्तरी सीमा पर दबाव बढा रहा है। ऐसे में का. करात के आलेख के राजनीतिक और कूटनीतिक अर्थ लगया जाना स्वाभाविक है। आलेख में करात लिखते हैं कि पष्चिमी देश आरएसएस के माध्यम से षडयंत्र कर भारत को चीन के साथ लडाना चाहता है।

करात के इस आलेख की कूटनीतिक मीमांसा की जाये तो यह लेख केवल करात का लेख नहीं माना जाना चाहिए। इसके पीछे आने वाले समय में चीन की रणनीति की झलक देखी जानी चाहिए। अगर चीनी विदेश मंत्रालय के भारत पर दिये गये बयान को देखा जाये तो कुछ इसी प्रकार की बातें चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी विगत दिनों कही है। चीनी विदेश मंत्रालय कहता है कि भारत की मीडिया पूंजीपरस्तों के हाथ का खिलौना बन गयी है। यही करण है कि भारत और चीन के संबंधों को बिगाडने का प्रयास किया जा रहा है। चीन ऐसा कुछ भी नहीं कर रहा है जिससे भारत को डरना चाहिए। लेकिन कार्यरूप में चीनी सेना ने भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया। भारतीय सीमा के अंदर आकर पत्थडों पर चीन लिख, भारतीय वायु सीमा का चीनी वायु सेना ने उलंघन किया, दलाई लामा के तमांग प्रवास पर चीन ने आपति जताई और अब कष्मीरियों को को अलग से चीनी बीजा देने का मामला प्रकाश में आया है। ये तमाम प्रमाण भारत के खिलाफ चीनी कूटनीतिक आक्रमण के हैं, बावजूद साम्यवादी करात के लिए चीन भारत का सच्च दास्त है। करात अपने ताजे आलेख से केवल अपना विचार नहीं प्रकट कर रहे हैं अपितु संबंधित संगठनों को धमका भी रहे हैं।

लेकिन करात को भारत में रह कर चीन की वकालत नहीं करनी चाहिए। इस देश के अन्न और पानी पर पलने वाले करात को यह समझना चाहिए कि चीन एक आक्रामक देश है। चीन से आज दुनिया भयभीत है। चीन के साथ जिस किसी देश की सीमा लग रही है उसके साथ चीन का गतिराध है। चीनी दुनिया में चौधराहट स्थापित करने और साम्यवादी साम्राज्य के विस्तार के लिए लगातर प्रयत्नशील है। ऐसी परिस्थति में चीन भारत जैसे लोकतांत्रिक देश का मित्र कैसे हो सकता है। चीन भारतीय लोकतंत्र से भयभीत है। उसे लग रहा है कि भातीय हवा अगर चीन में वही तो चीनी साम्यवादी साम्राज्य ढह जाएगा। इसलिए चीन भारत को या तो समाप्त करने की रणनीति बना रह है या साम्यवादी सम्राज्य का अंग बनाने की योजना में है। कुल मिलाकर प्रकाश करात चाहे जितना चीन की वकालत कर लें लेकिन चीन तो चीन है जिसके बारे में नेपोलियन ने कहा था इस राक्षस को सोने दो अगर जगा तो यह दुनिया के लिए खतरा उत्पन्न करेगा। करात साहब विचारधारा अपने पास भी है। लाल गुलामी छोड कर वंदेमातरम बोलने की आदत डालिए.

Saturday, September 26, 2009

मोदी को घेरने के फिराक में अभिजात्य गिरोह - गौतम चौधरी

इसरत जहां मुठभेड के बहाने एक बार फिर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को घेरने की योजना बनाई जा रही है। अहमदाबाद महानगर न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस0 पी0 तमांग की आख्या आते ही तिस्ता गिरोह पुन: सक्रिय हो गया है। तमांग की आख्या में कहा गया है कि इसरत जहां और उसके साथ मारे गये उसके तमाम साथी निर्दोष थे तथा गुजरात पुलिस ने कथित आतंकियों को मुम्बई से पकडकर लाई, दो दिनों तक अवैध पुलिस अभिरक्षण में रखी और फिर उसे मार कर मुठभेड दिखा दिया गया। न्यायमूर्ति तमांग की आख्या कहता है कि गुजरात पुलिस ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि कुछ अधिकारियों को मुख्यमंत्री के सामने अपना कद उंचा करना था। लेकिन इसरत मुठभेड के बाद सन 2004 में गुजरात पुलिस ने जो आख्या प्रस्तुत की वह न्यायमूर्ति तमांग की आख्या से बिल्कुल भिन्न है। उस आख्या में कहा गया है कि इसरत और उसके तमाम साथी पाकिस्तान समर्थित अति खतरनाक आतंकी संगठन लस्कर ए लोईबा के सदस्य थे और वे लस्कर के इशारे पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मारने अहमदाबाद आए थे। गुजरात पुलिस का यह भी दावा है कि पुलिस को इस बात की जानकारी केन्दीय गुफिया विभाग से प्राप्त हुई और खुफिया विभाग के निशानदेही के आधार पर ही इसरत ऑप्रेशन को अंजाम दिया गया। गुजरात पुलिस के द्वारा दी गयी आख्या की पुष्टि विगत दिनों केन्द्रीय गृह मंत्रालय के द्वारा राज्य सरकार को भेजे गए एक शपथ पत्र से भी होता है। उस सपथ पत्र में बाकायदा कहा गया है कि 15 जून, सन 2004 में पुलिस अभियान के दौरान मारे गये इसरत के साथ वे तमाम लोग आतंकवादी थे और लस्कर ए तोईबा के सक्रिय सदस्य थे। शपथ पत्र में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि लस्कर के मुख-पत्र गजबा से इस बात की पुष्टि होती है। गजबा नामक अखबर में क्या लिखा है इस बात का खुलासा न तो केन्द्र सरकार के किसी एजेंशी ने किया है और न ही गुजरात सरकार ने इस विषय पर कोई मुकम्मल तथ्य उपलब्ध करायी है लेकिन केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने इस बात को माना है कि उसके द्वारा एक सपथ पत्र गुजरात सरकार को भेजा गया है।

इन तमाम बिन्दुओं पर प्रकाश डालने से ऐसा लगता है इसरत मामले में बडा झोल है जो किसी स्वतंत्र संस्था के द्वारा जांच के बाद ही सामने आएगा लेकिन इसरत प्रकरण से दिल्ली एवं गांधीनगर की राजनीति में एक बार फिर से उबाल आ गया है। जहां एक ओर भारतीय जनता पार्टी अपने मुख्यमंत्री के पक्ष में उतर गयी है वही कांग्रेस और वाम दल मोदी को आदमखोर साबित करने की योजना में लग गये हैं। इस पेचीदे मुठभेड पर नि:संदेह एक बार फिर राजनीति की रोटी सेका जाना तय लग रहा है। लेकिन जो लोग इसरत प्रकरण को नरेन्द्र मोदी से जोड कर देख रहे हैं वे या तो गुजरात की वस्तिुस्थिति से अनभिग्य है या फिर वे किसी न किसी रूप से पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। मोदी, गुजरात और गुजरात की परिस्थिति को समझाने के लिए न केवल सन 2002 के दंगे पर ध्यान केन्द्रित करना होगा अपितु दंगे के पीछे की पृष्ठमूमि भी समझनी होगी। जो लोग सन 2002 के दंगे को सरकार संपोषित षडयंत्र मानते हैं वे भी गलत हैं।

गुजरात में हिन्दू मुसलमानों के बीच दंगा कोई नई बात नहीं है, लेकिन पहले दंगों में मुसलमान भारी पडते थे परंतु गोधरा कांड के बाद फैले दंगे में मुसलमान कमजोर पड गये। इसके पीछे दो कारण है एक तो पहले के अपेक्षा हिन्दू आक्रामक हुआ है। दूसरा दंगों में गुजरात प्रशासन का हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति है। इसे कोई आरएसएस से जोडे या फिर यह कहे कि यह गुजरात के भाजपा शासन द्वारा संपोषित षडयंत्र का प्रतिफल है तो वह उसकी मनोवृति हो सकती है लेकिन ऐसा देश भर में हुआ है। बिहार के भागलपुर के दंगे में भी ऐसा ही हुआ। भागलपुर के दंगे में मुसलमानों की तुलना में हिन्दू ज्यादा आक्रामक थे, साथ ही वहां के बहुसंख्यक हिन्दू अधिकारियों ने हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति दिखाई। आए दिन ऐसी परिस्थिति देश के कई भागों में देखने को मिल रहा है। देश के कई भागों में ऐसा देखा जाता है कि वह चाहे किसी पार्टी का नेता हो दंगे से समय हिन्दू हिन्दुओं के पक्ष में और मुसलमान नेता मुसलमानों के पक्ष में खडा हो जाता है। तो फिर गुजरात देश का अपवाद कैसे हो सकता है? यहां भी सन 2002 के दंगे में वही हुआ जो आए दिन देश के अन्य भागों में हो रहा है लेकिन सन 2002 का गुजरात दंगा कांग्रेस और साम्यवादी दलों के लिए मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक बडा हथियार साबित हुआ। देश की मीडिया ने भी गुजरात के दंगे को बेवजह तूल दिया। इस बजह से गुजरात ही नहीं देश के अन्य भागों के मुसलमानों में एक नए प्रकार का डर घर कर गया। इस डर का फायदा सीमा पर के दुश्मनों ने उठाया और देखते ही देखते पूरा भारत इस्लामिक आतंकवाद के जद में आ गया। सीधे साधे शब्दों में यह कहा जाये तो देश में इस्लामी आतंकवाद का विस्तार भारतीय मीडिया और प्रतिपक्षी राजनीति के नमारात्मक प्रयास का प्रतिफल है।

सन 2002 के दंगे के बाद गुजरात इस्लामी आतंकवाद के जद में आ गया। इस बात पर कम चर्चा होती है लेकिन दंगे के बाद गुजरात के सैंकडों हिन्दू नेताओं की हत्या हुई है। इसके अलावा लगभग 20 छोटी बडी आतंकी हमले गुजरात में हो चुके हैं। यह साबित करने के लिए काफी है कि दंगा में विश्वास करने वाली शक्ति अपनी रणनीति बदल ली है एवं वह अब हिन्दू नेतृत्व को अपना निशाना बना रही है साथ ही दंगा तो नहीं आतंकी हमला कर हिन्दुओं को मारने का कोटा पूरा किया जा रहा है। इस परिस्थिति में अगर केन्द्रीय गुप्तचर संस्था गुजरात पुलिस को कोई सूचना देती है तो उसपर कार्रवाई स्वाभाविक है। इसके अलावा इसरत अभियान में गुजरात और महाराष्ट्र दोनों राज्यों की पुलिस बराबर की हिस्सेदार थी तो फिर गुजरात पुलिस और गुजरात के मुख्यमंत्री को ही कठघरे में खडा करना कितना उचित है, इसपर विशद मीमांसा की जरूरत है।

हर मामले में मोदी और गुजरात को घसीटना आज देश की मीडिया के लिए मानो फैसन हो गया हो। अभी अभी उत्तराखंड और दिल्ली में फर्जी मुठभेड हुए हैं लेकिन किसी मीडिया समूह ने इस बात की चर्चा नहीं की कि वहां का मुख्यमंत्री आदमखोर है लेकिन मोदी को लगातार मीडिया यह साबित करने पर लगी है कि मोदी उल्पसंख्यकखोर हैं। इससे मीडिया का अभिजात्य, जातिवादी चेहरा उभरकर सामने आता है। वर्तमान समय में देश के अंदर एक खतरनाक साजिश हो रही है। देश के कुछ अभिजात्य परिवार, देश के सभी तंत्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाह रहे हैं। इन समूहों को इस काम में बहुत हद तक सफलता भी मिल चुकी है। देश का सर्वोच्च न्यायालय मानों कुछ परिवार के लिए आरक्षित कर दिया गया हो। यही हाल देश के कार्यपालिका का भी है। कार्यपालिका के आला पदों पर परिवारवाद जम कर हावी है। विधायिका में नरेन्द्र मोदी, कल्याण सिंह, उमा भारती, मायावती, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, येदुरप्पा, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, शरद यादव जैसे कुछ सामान्य लोगों की घुस पैठ हो गयी है जो देश की अभिजात्य शक्तियों को पच नही रही है और यही कारण है कि मोदी जैसे राजनेताओं को अपने परोये सभी का विरोध झेलना पडता है। अगर ऐसा नहीं है तो खुद गुजरात में कांग्रेस के शासनकाल में 10 से अधिक मुठभेड हुए उस पर प्रश्न क्यों नहीं खडा किया जाता है? कांग्रेस के नेता शंकर सिंह बाघेला के मुख्यमंत्रित्वकाल में लतीफ को मार गिराया गया था उस पर कांग्रेस या साम्यवादी दल क्यों नहीं बोलते? कुछ नहीं नरेन्द्र मोदी प्रतिपक्षी के अन्य किसी आघात से नहीं घबराते और चट्टान की तरह खडे हैं। साथ ही वे अभिजात्य गोष्ठि के सदस्य नहीं हैं क्यों कि मोदी अत्यंत पिछडी जाति से आते हैं। इस बात को न तो अभिजात्य मीडिया पचा पर रही है और न ही सत्ता पर हावी प्रभुता सम्पन्न लोग। यही कारण है कि मोदी हर समय सभी के टारगेट में रहते हैं। अब देखना यह है कि मोदी विरोधी गिरोह मोदी को पछाडता है या तमाम बाधाओं को पार कर मोदी राष्ट्रीय नेतृत्व की कमान झटक लेते हैं।

Sunday, September 20, 2009

आर्थिक अनुशासन या मुदो से भटकने की राजनीती - गौतम चौधरी

कांग्रेस पार्टी और केन्द्र सरकार आजकल एक नए अभियान में लगी है। गांधी के शिष्यों को लगभग 50 साल बाद एकाएक गांधी की याद आ रही है। विगत दिनों सरकार के सबसे प्रबुद्ध माने जाने वाले मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा कि देश में आर्थिक अनुशासन की जरूरत है और इस अनुशासन के लिए मंत्री तथा बडे अधिकारियों को पहल करन चाहिए। प्रणव दा ने न केवल कहा अपितु स्वयं इकॉनामी क्लास में हवाई यात्रा कर आर्थिक अनुशासन की प्रक्रिया प्रारंभ करने का प्रयास किया। देखा देखी कई मंत्रियों ने प्रणव दा का अनुसरण किया। स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने अपने खर्च में कटौती करने के लिए इकॉनामी क्लास में यात्रा की। कांग्रेस के द्वारा चलाए जा रहे नवीन तमाशों के बीच कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी ने दो कदम और आगे बढकर लुधियाना तक की यात्रा शताब्दी में कर डाली। राहुल की इस यात्रा ने मानो देश भर की मीडिया में भूचाल ला दिया हो। सभी अखबार ने अपनी सुखियां इसी खबर से बना डाली। दूरदर्शन वाहिनी वाले लगातार चीखते रहे कि राहुल ने अदभुद काम कर दिया और वे महात्मा गांधी से मात्र एक कदम ही पीछे रह गये हैं।
कांग्रेस के आर्थिक अनुशासन के अभियान की हवा पार्टी के नेताओं ने ही निकाल दी है। विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने तो इकानोमिक क्लास की यात्रा को पशुओं की यात्रा बताकर कांग्रेस के आन्तरिक मनोभाव को प्रगट कर दिया है। लेकिन कांग्रेस और केन्द्र सरकार इस अभियान को आगे बढाने की योजना में है। इस योजना से देश का मितना भला होगा या आर्थिक अपव्यय पर कितना अंकुश लगेगा, भगवान जाने, लकिन जिस प्रकार कंपनी छोट कलेंडर भारी जैसे कहावत की तरह कांग्रेसी इस अभियान को प्रचारित कर रहे है उससे तो इस पूरे अभियान से एक भयानक राजनीतिक षडयंत्र की बू आ रही है। एक हिसाब लगाकर देखा जाये तो कांग्रेस के मंत्रियों के पास अरबों की बेनामी चल अचल संपत्ति है। स्वयं सोनिया जी ऐसी कई संस्थाओं की प्रधान हैं जो स्वयंसेवी संगठन के नाम पर प्रति वर्ष करोडों की उगाही करता है।
ऐसे ही दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला जी का मामला है। कांग्रेस के लगभग सभी बडे नेताओं के पास अरबों की संपति है। हां, प्रणव दा या ऐ0 के0 एन्टेनी जैसे कुछ नेता हैं जो आम जनता की तरह जीते हैं। यह वही कांग्रेस है जिसके नेता आज भी गांव-गांव में नव सामंत की भूमिका में हैं। केवल इकानोमिक क्लास के हवाई यात्रा मात्र से आर्थिक अनुशासन संभव नहीं है। इसके लिए अन्य और कई उपाय करने की जरूरत है। कांग्रेस का चरित्र सदा से दोहरा रहा है। सच तो यह है कि देश में लगातार महगाई बढ रही है, देश आर्थिक दृष्टि से कंगाल हो रहा है, नक्सलवाद धीरे धीरे अपना विस्तार बढ रहा है तथा चीन एवं पाकिस्‍तान सीमापार सामरिक मोर्चा खोलने के फिराक में है। ऐसी पस्थिति में अब केन्द्र सरकार क्या करे? इसलिए कुछ ऐसी बात जनता के सामने तो रखनी पडेगी जो जनता को प्रभावित करे तथा देश के मुख्य मुद्दों से जनता का ध्यान हटाता रहे। ऐसे ही कुछ दिनों तो स्वाईन फ्लू का फंडा चला, अब जब वह शांत हुआ तो नया फंडा अया, आर्थिक अनुशासन का। महंगाई बढ रही है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, सुरक्षा की ऐसी तैसी हो रही है। जब रेल यात्रा के दौरान राहुल स्वयं सुरक्षित नहीं हैं तो फिर आम आदमी की सुरक्षा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। इस परिस्थिति में कांग्रेस तथा केन्द्र सरकार को वास्तविक विषय पर ध्यान केन्द्रित करनी चाहिए, न कि फंतासी प्रचार में अपना समय और पैसा अपव्यय करना चाहिए।
अभी संसदीय चुनाव के बाद कांग्रेस अपने गठबंधन के साथ फिर से सत्ता में लौटी है। सरकार ने 100 दिनों की कार्य योजन भी बनाई। उसपर कितना काम हुआ, सरकार को अपने मातहत महकमों को पूछना चाहिए, क्योंकि जनता यह जानना चाहती है। यह कौन नहीं जानता कि मंत्री या अधिकारियों को जब विदेश भ्रमण की इच्छा होती है तो वे विदेश भ्रमण की सरकारी योजना बना लेते हैं। मंत्री और अधिकारी मुर्गी पालन, भेड पालन, सूअर पालन, न जाने किन किन विषयों का प्रशिक्षण लेने विदेश जाते हैं। इन तमाम बिन्दुओं पर पहले सरकार जांच बिठाए, फिर पता लगाये कि मंत्री या अधिकारियों के उक्त भ्रमण से देश या समाज को कितना लाभ हुआ है। अगर लाभ शून्य है तो उन मंत्रियों और अधिकारियों पर भ्रमण के दौरान हुए व्यय की वसूली की जाये, लेकिन ऐसा करेगा कौन। क्योंकि इससे तो फिर काम होने लगेगा। काम तो इस देश में होना नहीं चाहिए, हां, राजनीति जरूर होनी चाहिए, सो हो रही है। सच्च मन से कांग्रेस आर्थिक अनुशासन चाहती है तो कांग्रेस को फिर से पुनर्गठित करने की जरूरत है। क्या सोनिया जी कांग्रेस के पुनर्गठन का साहस दिखा पाएंगी?

चीन से डरने की नही लारने की जरुरत - गौतम चौधरी

चीन लगातार भारत के घेरेबंदी में लगा है। इस घेरेबंदी का एकमात्र लक्ष्य भारत को कमजोर करना है। नेपाल में हुरदंगी समूह माओवाद का समर्थन, अरूणाचल पर अधिकार जताना, अरब सागर और बंगाल की खाडी में चीनी हस्तक्षेप यह साबित करने के लिए काफी है कि चीन भारत का हित नहीं सोच रहा है। चीन भारत का हित सोच भी नहीं सकता है क्योंकि वहां दो प्रकार का विस्तारवादी चिंतन हावी है। पहला दुनिया का सबसे खतरनाक अवसरवादी जातीय चिंतन हानवाद का विस्तार और और दूसरा सेमेटिक सोच पर आधारित ईसाइयत से प्रभावित साम्यवादी का प्रभाव। इन दोनों चिंतनों के अबैध संबंधों पर आधारित चीन आज दुनिया के लिए एक नए प्रकार का खतरा उत्पन्न कर रहा है। चाहे वह हानवादी विस्तारवाद हो या फिर साम्यवादी साम्राज्यवाद, दोनों ही चिंतन दुनिया को तीसरे महायुद्ध की ओर ले जाने वाला है।
चीनी रणनीति के जानकारों का कहना है कि चीन इस्लामी दुनिया की ओर हाथ बढ रहा है। इस बात की चर्चा लगभग 90 साल पहले भारतीय स्वातंत्र समर के दौरान महान क्रांतिकारी बिपिन चन्द्र पाल के द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक हिन्दू रिव्यू में की गयी है। साथ ही श्री पाल ने अपनी भविष्यवाणी में यह भी जोडा है कि सम्भव है कि आने वाले समय में भारत के लिए यूरप के देश दोस्त की भूमिका में हों लेकिन चीन और इस्लामी दुनिया का गठजोड अन्ततोगत्वा भारत के खिलाफ जाएगा। आज चीन जिस ओर बढ रहा है उससे तो स्व0 बिपिन चन्द्र पाल की भविष्यवाणी सही साबित हाती दिखाई दे रही है। एक बार संयुक्त प्रजातांत्रिक गठबंधन सरकार के प्रतिरक्षा मंत्री और समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस ने चीन के चालों का मुखर विरोध करते हुए कहा था कि जिस देश के प्रत्येक चौक चौराहों पर फालतू चीनी व्यंजन बिकने लगा है उस देश को पाकिस्तान से नहीं चीन से सतर्क रहने की जरूरत है।
आज एक बार फिर भारत, चीन के निशाने पर है। चीनी सैनिक भारतीय सीमा का लगातार अतिक्रमण कर रहे हैं। चीनी जासूस पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यमार, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान जैसे भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में सक्रिय हो रहा है। इन देश में एक नये प्रकार के भारत विरोध को हवा देने की चीनी चाल सफल हो रही है। नेपाल में हिन्दी विरोध को इसी परिप्रेक्ष्य में लिया जाना चाहिए। भारतीय कूटनीति के द्वारा तिब्बत को चीनी साम्यवादी संघ का अभिन्न अंग मान लेने के बाद भी चीन इस बात से सहमत नहीं है कि अरूणाचल प्रदेश भारतीय संघ का हिस्सा है। लेह, लद्दाख, और सियाचीन का हवाई अड्डा चीनी सामरिक रणनीति के जद में है। विगत दिनों चीन ने अन्तरराष्ट्रीय आदर्श का अतिक्रमण करते हुए बयान दिया कि दलाई लामा का अरूनांचल यात्रा चीन में अलगाववाद को हवा देने के लिए एक सोची समझी रणनीति का नतीता है, और दलाई लामा की अरूणांचल यात्रा की छूट देकर भारत ने चीन के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप किया है। चीन जब पाकिस्तान के द्वारा प्रदत्त भारतीय भूमि पर सामरिक उपयोग के लिए सडक बनाता है तो वह अन्तरराष्ट्रीय कानून का उलंघन नहीं होता है लेकिन दलाई लामा एक नेक काम के लिए अरूणाचल जाते हैं तो वह चीन के गृह मामले में हस्तक्षेप की श्रेणी में आता है। यह चीन का कानून है जिसे भारत को मानना पडेगा क्योंकि चीन एक प्रभू राष्ट्र है तथा भारत उसके सामने कमजोर। भारत दलाई लामा को सुरक्षा प्रदान करने का बचन दिया है। यह भारती की विदेश नीति का अंग है। ऐसा भारत का इतिहसा रहा है। दुनिया जब जापान को परेशान कर रही थी तो दुनिया के प्रभू राष्ट्रों का विराध करते हुए भारत ने जापान का समर्थन किया। खुद चीन में साम्यवाद की स्थापना के बाद सबसे पहले भारत ने मान्यता उसे एक देश के रूप में मान्यता प्रदान किया। संयुक्त राष्ट्र संघ में भी भारत के समर्थन से ही चीन सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बन पाया। पाकिस्तानी अत्याचार से बांग्लादेश को मुक्त कराने में भारत की भूमिका को दुनिया जानती है। नेपाल में बरबर राणाशाही की सामाप्ति में भारत ने अभूतपूर्व भूमिका निभाई । भारत की विदेशनीति है कि दुनिया में किसी भी जाति, धर्म, समूह, संप्रदाय के लोगों पर अत्याचार नहीं होना चाहिए। तिब्बत के लोगों को न्याय दिलाना भारतीय लोकतांत्रिक संघ का घोषित ध्येय है। अब दलाई लामा धार्मिक काम से अरूणाचल जा रहे हैं तो चीन की आपति क्यों? चीन बिना भारत को बताये और विश्वास में लिए भारतीय सीमा पर सैन्य उपयोग के लिए सडक बनाया, पाकिस्तान में बंदरगाह के आधुनीकिकरण में चीन पैसा लगा रहा है, चीन सामरिक उपयोग के लिए बांग्लादेश में बंदरगाह विकसित कर रहा है। यही नहीं क्षद्म रूप से चीन तालिबान, पूर्वोतर के खुंखार आतंकी संगठन एनएससीएन, श्रीलंका तथा दक्षिण भारत में सक्रिय लिट्टे, भाारत के विभिन्न भागों में फैले माओवादी चरमपंथी समूह आदि कई भारत विरोधी आतंकी संगठनों को वित्तीय, हथियार और खुफिया सहायता उपलब्ध करा रहा है। सब कुछ जानते हुए भारत ने कभी चीन को यह नहीं कहा कि वह भारत के खिलाफ षडयंत्र कर रहा है, लेकिन दलाई लामा अरूणांचल जाना चीन को बरदास्त नहीं है।
इन तमाम घटनाओं और चीनी चालों से साबित होता है कि चीन भारत के खिलाफ जंग की तैयारी में लगा है। चीन को यह लग रह है कि भारत को परास्त करने के बाद वह दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर सकता है। इसलिए वह भारत पर आक्रमण की रणनीति बना रहा है। भारत को घेरने के लिए चीन न केवल सामरिक संतुलन बैठा रहा है अपितु भारत के अंदर एक ऐसे बुध्दिजीवियों को भी खडा कर रहा जो यह प्रचारित करे कि चीन भारत का नहीं अपितु भारत में सक्रिय प्रभू वर्ग का दुश्मन है। चीन की योजना के आधार पर कुछ बुध्दिजीवी सक्रिय भी हो रहे हैं। यह आज से नहीं चीन में स्थापित साम्यवादी व्यवस्था के समय से ही हो रहा है। पं0 सुन्दरलाल नामक एक कूटनीतिक अपने आलेख में लिखते हैं कि सन 62 की लडाई में चीन ने नहीं अपितु भारतीय सेना ने चीन पर आक्रमण कर दिया। चीनी फौज तो सराफत से भारतीय सेना का सैन्य आयुद्ध छीन उसे बिना कुछ कहे ससम्मान भारत लौट आने दिया था। सुन्दरलाल जो अपने आप को चीनी युद्ध के समय का महान राजनैयिक बता रहे हैं उन्होंने एक आलेख लिखा है। वह आलेख मेनस्ट्रीम नामक पत्रिका में 4 नवम्बर सन 1972 में प्रकाशित हुआ। सुन्दरलाल जी के आलेख को फिर से वीर भारत तलवार ने अपनी पुस्तक नक्सलबाडी के दौर में छापा है। इस आलेख के प्रकाशन का एक मात्र ध्‍येय यह साबित करना है कि चीन तो अपने जगह ठीक ही है भारत पश्चिमी देशों के अकसावे पर एक आक्रामक राष्ट्र की भूमिका अपना रहा है। यही नहीं चीन में नियुक्त भारत के राजदूत का भी सुर बदला हुआ है। भारतीय मीडिया लगातार यह कह रही है कि चीन भारत की ईंच दर ईंच जमीन हथिया रहा है लेकिन भारत के राजदूत इसे सरासर झूठ बता रहे हैं। वे चीन के सुर में सुर मिलाकर कहते हैं कि भारतीय मीडिया पश्चिमपरस्त हो गयी है। यह चीन और भारत को नाहक में लडाना चाह रही है। लेकिन जो लोग चीनी करतूत को देख कर आए हैं। जो लोग सीमा पर चीनी सैन्य हरकतों को पहचान रहे हैं उनकी बातों को कैसे झुठलया जा सकता है।
एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि पाकिस्तानी सीमा पर तैनात सैनिकों को चीनी सीमा पर तैनान करने की रणनीति संयुक्त राज्य अमेरिका की है। इससे पकिस्तान अपनी पूरी ताकत से तालिबान के खिलाफ लड पाएगा। इस तर्क में भी दम है। इसे अगर मान भी लिया जाए तो हर्ज क्या है। मध्य एशिया में सक्रिय पश्चिम की कूटनीति से भारत को फायदा उठाना ही चाहिए। तालिवान के सहयोग का पाईपलाईन काटने के लिए अमेरिका की रणनीति है कि चीन को भारत के साथ उलझाया जाये लेकिन आज न कल तो चीन भारत के साथ उलझेगा ही। अभी अमेरिका के साथ चीन की स्पर्धा शीत युद्ध में बदल की स्थिति में आ गया है। भारत को इसका लाभ उठाकर चीन पर दबाव बनाना चाहिए। मध्य एशिया में पश्चिमी हित से चीनी हित के टकराहत को भारत अपने भविष्य की कूटनीति बना सकता है। हालांकि यह तर्क चीन समर्थित मीडिया के द्वारा फैलाया गया एक भ्रम भी हो सकता है।
चीन भारत के अर्थतंत्र को खोखला करने के लिए जाली नोट के रैकेट को बढावा दे रहा है। चीन तमिल छापामारो के द्वारा चेन्नई में ड्रग हब विकसित करने फिराक में है। इसके कई प्रमाण मिले हैं। तमिल छापामार आजकल चीनी जासूसों के संपर्क में है। भारत के पास इस बात का पक्का प्रमाण है कि चीन दक्षिण पूर्वी एशिया के एक बडे भूभाग में उत्पन्न अफीम को अबैध तरीके से परिशोधित कर ड्रग बनाता है। हालांकि खुलम खुल्ला तो नहीं लेकिन चीनी माफिया इस ड्रग को अफ्रिका और यूराप के देशों में ले जाते हैं। करोडों के इस कारोबार में अब तमिल छापामार भी शमिल हो गया है। चीन ड्रग के द्वारा प्राप्त आमदनी दुनियाभर में अपने हितों के लिए आतंकवादी संगठनों में बांटता है। इसी प्रकार अबैध हथियारों के धंधे में चीन लगा है। भारत या दक्षिण एशिया में सक्रिय आतंकी समूहों को चीन लगातार हथियार उपलब्ध करा रहा है। विगत दिनों नकली दवा की एक बडी खेप चीन से अफ्रिकी देशों के लिए भेजा गया। दवाओं पर मेड इन इंडिया लिखा था। जांच के बाद पता चला कि यह दवा चीन के द्वारा भेजा गाया है। इस प्रकार चीन भारत को घाटा पहुंचाने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहता है।
ऐसी पस्थिति में चीन के खिलाफ भारत की क्या रणनीति होनी चाहिए और चीन को किस प्रकार घेरना चाहिए इसकी मुकम्मल योजना तो भारत को बनाना ही होगा। भारतीय कूटनीति वर्तमान चीनी ऐग्रेशन पर चीन के खिलाफ कूटनीतिक मोर्चा नहीं खोला तो चीन भारत को हडप लेगा। तब भारत अन्य चीनी प्रांतों के तरह केवल आंशू बहाने के अलावा और कुछ भी नहीं कर पाएगा। चीन जितना भयावह दिखता है उतना भयावह है नहीं। भारत उसे परास्त कर सकता है। याद रहे ड्रैगन के जबरे और चंगुत जरूर मजबूत होते हैं लेकिन ड्रैगन के रीढ की हड्डी कमजोर होती है। वह जितना देखने में खतरनाक लगता है उतना होता नहीं है। फिर ड्रैगन नामका कोई जीव धरती पर अब जीवित नहीं है। यह एक काल्पनिक अवधारना है। इस काल्पनिक भय को वास्तविक ताकत से ही जीता जा सकता है। भारत कमर कसे ड्रैगनी राक्षस को समाप्त करने के लिए दुनिया भारत के साथ होगी। दावे के साथ कहा जा सकता है कि चीन भारत की लडाई साधारण लडाई नहीं होगी। यह दुनिया का तीसरा महायुद्ध होगा और जिस प्रकार दूसरे महायुद्ध के बाद इजरायल को अपनी खोई भूमि मिली थी उसी प्रकार इस युद्ध में तिब्बत को अपनी खोई भूमि मिलेगी। भारत को तो मात्र इस युद्ध की अगुआई करनी है।

इसरत प्रकरण के बहाने नई राजनीति की सुगबुगाहट-गौतम चौधरी

गुजरात उच्च न्यायालय ने इसरत जहां केस में राज्य सरकार को स्टे दे दिया है। बावजूद इसके राजनीति तो होनी ही है, क्योंकि मामला गुजरात सरकार से संबंधित है और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी को केवल भाजपा के प्रतिपक्षी ही नहीं कुछ अपने लोग भी घेरने के फिराक में हैं। उन लोगों के लिए इस प्रकार का मामला ज्यादा महत्व रखता है। अब देखना यह है कि प्रमुख प्रतिपक्षी और मोदीवाद के घुर आलोचक कांग्रेस, इस मामले को लेकर क्या रणनीति अपनाती है।
प्रेक्षकों का मानना है कि लोकसभा चुनाव तथा राजकोट महानगर पालिका में हुई भाजपा की भारी हार के बाद मोदी परेशान हैं। उपर से इसरत प्रकरण ने मोदी को और दबाव में ला दिया है, ऐसी संभावना स्वाभाविक है। मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि मीडिया का एक खास वर्ग उन्हें राक्षस के रूप में प्रचारित कर रहा है। उन समाचार माध्यमों के लिए इसरत प्रकरण मजबूत हथियार साबित हो रहा है। ऐसे में नरेन्द्र भाई कौन सी चाल चलते हैं यह एक अहम प्रश्‍न है। भाजपा के अंदर हुए उठा पटक और कई प्रकार के विवाद के बाद मोदी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन राव भागवत से मिलना, फिर संघ के नजदीकी माने जाने वाले डॉ0 मुरली मनोहर जोशी का मोदी के साथ वार्ता यह साबित करने के लिए काफी है कि अब मोदी का गुजरात अभियान समाप्ति की ओर है। केन्द्र में मोदी की अहमियत बढ रही है। साथ ही भाजपा के पास ऐसी कोई छवि नहीं है जो देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं को एक बार फिर से जोड सके। ऐसी परिस्थिति में मोदी केन्द्रीय अभियान पर निकलने की रणनीति बना रहे हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिए।
अब सवाल यह उठता है कि क्या इसरत मुठभेड प्रकरण मोदी की भावी राजनीति तय करने वाली होगी या सोहराबुद्दीन प्रकरण के तरह ही मोदी इस केस को भी एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर लेंगे? इन तमाम सवालों के घटाटोप में एक बार फिर गांधीनगर से लेकर दिल्ली तक की राजनीति में उष्‍णता महसूस की जा रही है। अब क्या होगा, गुजरात के मुख्य प्रधान की कुर्सी खतरे में है या फिर इस प्रकरण से भी वे उबर जाएंगे, ऐसे कई सवाल राजनीति के गलियारे में तैरने लगे हैं। फिलहाल न्यायालय को राजनीति का अखाडा बनाने के फिराक में प्रतिपक्षी जोर आजमाइस में लगे हैं। खबर का एक पहलू यह भी है कि आखिर एकाएक महानगर न्यायालय के न्यायाधीश की आख्या को सार्वजनिक क्यों कर दी गयी? सवाल गंभीर है और इसका जवाब किसी के पास नहीं है। तमांग के पास जाने वाले तमाम पत्रकारों को खाली हाथ ही लौटना पडा है। वे कुछ भी कहने से इन्कार कर हरे हैं।
इधर इसरत समर्थक समूह एकाएक हडकत में आ गया है। समूह अखबार से लेकर राजनीति तक को झकझोर रहा है। पत्रकार वार्ताएं हो रही है। समूह के मुखिया और पूर्व अवकास प्राप्त पुलिस महानिदेशक आर0 बी0 श्रीकुमार चीख-चीख कर कह रहे हैं कि गुजरात सरकार ने न केवल फर्जी मुठभेड करवाए अपितु सरकार के प्रवक्ता ने न्यायालय की अवमानना भी की है। न्यायालय की अवमानना पर तो न्यायालय को संज्ञान लेना अभी बांकी है लेकिन एक साथ कई मोर्चों का खुलना और उन मोर्चों पर स्वयंभू सिपहसालारों की मार्चेबंदी का कुछ रहस्य तो जरूर होगा। इस बार गुजरात सरकार भी ज्यादा उत्साहित नहीं है। मामले की गंभीरता को समझकर सरकार अपनी रणनीति बना रही है। सरकारी प्रवक्ता और काबीना मंत्री जयनाराण व्यास ने एक और खुलासा करते हुए कहा कि मात्र 20 दिनों के अंदर 600 पृष्टों की रिपोर्ट कैसे तैयार हो गयी? फिर इस रिपोर्ट के साथ ऐसी क्या बात है कि इतनी जल्दबाजी की गयी? श्री व्यास का कहना है कि मामला पेंचीदा है और मामले को साधारन तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए। व्यास को माननीय न्यायालय के द्वारा प्रस्तुत आख्या में राजनीति की गंध आ रही है। सरकारी प्रवक्ता ने न्यायालय की मंशा पर सीधे-सीधे आरोप तो नहीं लगाया है लेकिन कई प्रश्‍न ऐसे खडे किये जो रिपोर्ट की त्रुटि को इंगित करता है।
इसरत केस पर मानवाधिकारवादी और केस लड रहे समर्थकों को छोड कर कोई बडी राजनीतिक पार्टी खुल कर सामने नहीं आ रही है। इससे भी ऐसा लगता है कि अंदर खाने कोई नई रणनीति बनायी जा रही है। रणनीति का सूत्रधार कौन है और उस रणनीति के काट के लिए भारतीय जनता पार्टी और राज्य सरकार कौन सी रणनीति बना रही है यह तो भविष्य बताएगा लेकिन वर्तमान तमांग की रिपोट ने सत्ता पक्ष तथा प्रतिपक्ष को अपने अपने दायरे का हथियार तो दे ही दिया है। इस हथियार से कितनी लडाई लडी जाएगी, और लडाई का क्या प्रतिफल होगा इसपर अभी मीमांसा बांकी है लेकिन प्रकारांतर में गुजरात की राजनीति में इसरत केस का अध्याय कोई न कोई गुल जरूर खिलाएगा।

Saturday, August 29, 2009

जेहादियों के सामान ही खतरनाक हँ मओबाद - गौतम चौधरी

उडीसा में चरम वामपथियों ने नल्को बाक्साईड खादान पर आक्रमण कर 14 औद्योगिक सुरक्षा गार्ड के जवानों को मौत के घाट उतार दिया। बिहार और झारखंड में कम से कम 02 सुरक्षा कर्मियों को नक्सली हिंसा का शिकार होना पडा है। 15 वीं लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण में माओवादी उत्पात के कारण कम से कम 12 सुरक्षाकर्मियों सहित 18 लोगों की मौत हो गयी। माओवादियों ने आम चुनाव वहिष्कार की घोषणा की थी। छतीसगढ में सलवाजुडूम के प्रभावशाली नेता के भाई की हत्या कर दी गयी। कुल मिलाकर देखा जाये तो इस्लामी जेहादी आतंकवाद के समानांतर ही वामपंथी चरमपंथी देश और समाज को क्षति पहुंचा रहे हैं। बावजूद इसके वाम चरमपंथियों पर न तो सरकार शख्त है और न ही भारत का समाचार जगत ही यह मानने को तैयार है कि नक्सली हिंसा भी आतंकवाद के दायरे में आता है। यह ठीक नहीं है और आने वाले समय में देश की संप्रभुता के लिए यह सबसे बडी चुनौती साबित होने वाली है। विगत दिनों मीडिया जगत में आतंकवाद के प्रति दृष्टिकोण में भारी अन्तर आया है। मीडिया का एक बडा समूह यह मान कर चलता था कि बाबरी ढांचा ढहाए जाने या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के खडे होने से मुस्लिम समाज का एक बडा तबका असंतुष्ट है और यही कारण है कि भारत में इस्लामी जेहादी आतंकवाद का दायरा धीरे धीरे बढता जा रहा है, लेकिन इस सिध्दांत को तूल देने वाले अब बगल झांकने लगे हैं। आम मीडियाकर्मी इस सिध्दांत से सहमत नहीं है। मीडिया का एक बडा वर्ग अब यह मानने लगा है कि इस्लाम का चरम चिंतन ही इस्लामी समाज के नैजवानों को आतंक के लिए उकसाता है। इस सोच को मुम्बई हमले के बाद और बल मिला है। हालांकि मुम्बई हमले पर भी देश के कुछ बुध्दिजीवियों ने आम मीडिया कर्मियों की राय बिगारने में अपनी सक्रियता दिखाई। आनंद स्वरूप वर्मा और अजीज बर्नी जैसे पत्रकार ने तो मुम्बई हमले में पाकिस्तान को क्लिन चिट दे दिया लेकिन आम मीडियाकर्मी इस बात से सहमत नहीं हुआ कि मुम्बई हमला हिन्दुवादी संगठनों के साजिस का प्रतिफल है। इस बार हिन्दुवादी संगठनों को बदनाम करने वाली ताकत बेनकाब हो गयी और लाख चीखन के बाद भी राजेन्द्र यादव का गिरोह यह साबित करने में नामाम रहा कि मुम्बई हमले के पीछे आरएसएस लॉबी था।जिस प्रकार इस्लामी जेहादी आतंक के प्रति देश का मानस तेजी से बदला है उसी प्रकार मीडिया में इस बात के प्रचार की जरूरत है कि माओवादी आतंकवाद भी उतना ही खतरना है जितना इस्लामी जेहादी। मीडिया जगत और देश की सरकार को स्वीकारना लेनी चाहिए कि वामपंथी आतंक गरीबी और अमीरी की बढती खाई के कारण नहीं अपितु देश को अस्थिर करने वाली तथा विदेशी पैसों के द्वारा खडा किया गया एक कृत्रिम आतंकी ढांचा है जिससे गरीबों का कल्याण तो नहीं ही होगा उलट देश के कई टुकरे हो जाएंगे और भारतीय उपमहाद्वीप लंबे समय तक के लिए अशांत हो जाएगा। जेहादी आतंकी और चरम वामपंथियों में बेहद समानता है। इस बात से सहमती जताई जा सकती है कि किसी जमाने में एक पवित्र मकसद को लेकर कुछ नैजवाने ने बंदूक उठा लिया और जंगल चले गये, लेकिन नक्सलियों की वह पीढी समाप्त हो गयी है। अब वे लक्ष्य विहीन बदमाशों की टोली मात्र बन कर रह गये हैं। चौकाने वाली बात तो यह है कि चरम वामपथी संगठनों में अरबों रूपये चंदा का आता है लेकिन उसका कोई लेखा जोखा नहीं होता है। लेवी के नाम पर रंगदारी टैक्स का क्या किया जाता है उसका कही कोई हिसाब नहीं है इन संगठनों के पास। नक्सली नेताओं के बच्चे विदेश में पढ रहे हैं और आम वाममार्गी कार्यकर्ता आज भी बंदूक ढो रहे हैं। कुल मिलाकर भूमिगत साम्यवादी चरमपंथी संगठनों में विकृति और अराजकता का बोलबाला है। ये पैसे लेकर वोट बहिष्कार करते हैं और जिस पार्टी या व्यक्ति से पैसा मिलता है उसके लिए बूथ भी छापते हैं। इसके कई प्रमाण बिहार और झारखंड में देखने को मिला है। अब तो माओवादी समूह ईसाई मिशनरियों के इशारे पर काम करने लगा है। विगत दिनों उडीसा के संत लक्ष्मणानंद की हत्या में माओवादियों ने स्वीकरा की संत हिन्दुओं को भरकाता था इसलिए उसकी हत्या कर दी गयी। यह साबित करता है कि संत के खिलाफ वहां की जनता नहीं थी अपितु धर्म की खेती करने वाले ईसाई पादरियों के आंख में संत खटक रहे थे। यही कारण था कि संत की हत्या मिशनरियों के इशारे पर माओवादियों ने करयी। देश में ऐसे कई उदारण है जो माओवादियों को कठघरे में खडा करता है। यह साबित करने के लिए काफी है कि माओवादी अपने मूल सिध्दांत से भटक गये हैं और जिस प्रकार इस्लामी चरमपंथी जेहाद शब्द की गलत मिमांशा में लगे हैं उसी प्रकार साम्यवादी चरमपंथी भी वर्ग संघर्ष की गलत व्याख्या कर भोली भाली जनता को न केवल उकसाते है अपितु उसका शोषण भी करते हैं।इस विषय पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए कि जेहादी आतकियों का सबसे बडा केन्द्र अफगान और पाकिस्तान में चीनी जासूस सक्रिय है। तालिबान, अमेरिकी युध्द के बाद कमजोर हो गया था लेकिन चीनी सहायता और पाकिस्तानी प्रशिक्षण ने उसे फिर से जिन्दा कर दिया है। जेहादी आतंकियों का नया क्लोन चीन में तैयार हो रहा है। इन आतंकियों को पहले रूस ने संपोषित किया, फिर रूस के खिलाफ अमेरिका ने उन्हें अपना हथियार बनाया और आज विश्व में अपना दबदबा बढाने के लिए चीन जेहादियों को हवा दे रहा है। माओवादी चरमंथी भी चीन की ही देन है। भारत में माओवादी चरमपंथी, ईसाई मिशनरी और जेहादी आतंकी एक ही योजना पर काम कर रहे हैं। सेमेटिक चिंतन समूह की योजना से भारतीय उपमहाद्वीप को अफ्रिका बनाने का प्रयास किया जा रहा है और चीन इस पूरे षडयंत्र का नेतृत्व कर रहा है। भारत की कूटनीति और विदेश नीति के साथ ही आन्तरिक सुरक्षा की नीति में माओवादी आतंकवाद को भी जेहादी आतंकवाद की श्रेणी में लाया जाना चाहिए। जिस प्रकार देश की मीडिया ने जेहादी आतंकियों को नकार दिया है उसी प्रकार मीडिया को माओवादी आतंकवाद के प्रति भी अपनी स्पष्ट नीति बनानी होगी। हां मिशनरियों के सेवा भाव के कारण और मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को ध्यान में रखकर उसके खिलाफ नकारात्मक दृष्टिकोण रखना ठीक नहीं होगा लेकिन ईसाई मिशनरियों के आय-ब्यय पर गंभीर नजर रखने की जरूरत है। याद रहे जहां जहां ईसाई मिशनरियों की पहुंच बढी है वहां आज माओवादी षडयंत्र सहज देखा जा सकता है। भारत की जासूसी संस्था से मिले संकोतों में इस बात का स्पष्ट जिक्र किया गया है कि माओवादी संरचना भारतीय लोकतंत्र, भारतीय जीवन पध्दति, भारत के सार्वभौमिकतावादी सोच से अलग है। माओवादी यह भी मानने को तैयार नहीं है कि भारत एक राष्ट्र है। वे भारत को कई संस्कृतियों का समूह मानते हैं और सोवियत रूस की तरह भारत को एक साम्यवादी संघीय ढाचे में ढालना चाहते हैं। हालांकि माओवादियों के लिए चीन प्रेरणा का श्रोत रहा है लेकिन चीन की भौगोलिक परिस्थिति और सामाजिक संरचना भारत से भिन्न है इसलिए साम्यवादी चरमपंथी भारत को साम्यवादी संघीय ढांचा देना चाहते हैं लेकिन इससे पहले वे टुकरों में बांच कर भारत पर कब्जे की योजना बना रहे हैं। यह खतरनाक है। टुकरों में बटने के बाद उपमहाद्वीप में कितना रक्तपात होगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। फिलवक्त विदेशी ताकत इस बात पर एक मत है कि पहले भारत के वर्तमान ढंचे को ढाहा जाये। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में माओवाद या फिर जेहादी आतंकवाद का कही कोई स्थान नहीं है लेकिन माओवादी चरमपंथी इससे सहमत नहीं हैं। वे लगातार इस योजना पर काम कर रहे हैं कि भारत का विभाजन हो और भारत का लोकतंत्रात्मक संघीय ढांचा ध्वस्त हो जाये। फिर भारत को अपने ढंग से ढालने में सहुलियत होगी। जोहादी समूह भी कामोबेस यही चाहता है। जहां जेहादी एक खास संप्रदाय को अपना हथियर बनाया है वही चरम वामपंथियों ने एक विचार का चोला ओढ कर भारत में षडयंत्र कर रहा है।
इस पूरी योजना को समझकर जिस प्रकार भारतीय मीडिया ने जेहादी आतंकियों के प्रति रवैया अपनाया है उसी प्रकार माओवादी चरमपंथियों के प्रति भी अपनाने की जरूरत है। चाहे चरमपंथ किसी का हो उसके प्रति सहज संवेदना रखना भारत के लोकतंत्रात्मक मूल्यों के साथ अपराध करना है। हम एक सफल लोकतंत्रात्मक गणतंत्र में जी रहे हैं। यहां हर को अपनी बात रखने और अपने ढंग से काम करने, पूजा करने का अधिकार प्राप्त है। इस स्वतंत्रता को कोई छीनता है तो उसका डटकर विरोध होना चाहिए। साम्यवाद गरीबी और अमीरी की लडाई का चिंतन नहीं है। याद रहे यह विशुध्द भौतिकवादी चिंतन है। यह चिंतन भी उतना ही खतरनाक है जितना जेहादी आतंकवाद।

गाँधी, लोहिया के रास्ते चला नेपाली मओबाद - गौतम चौधरी



एक बार फिर नेपाली माओवादियों ने नेपाल को अस्थिर करने की योजना बनाई है। सुना है इस बार चरमपथीं आन्दोलन का नेतृत्व बाबूराम भट्टराई कर रहे हैं। हालांकि माओवादी आन्दोलन की रूप रेखा लोकतंत्रात्मक ही दिखाया जा रहा लेकिन माओवादी इतिहास को देखकर सहज अनुमान लेगाया जा सकात है कि आन्दोलन की दिशा हिंसक होगी। इस बार के आन्दोलन में माओवादी चरमपंथियों ने दो मिथकों को तोडा है। यह पहली बार हो रहा है जब माओवादी आन्दोलन का नेतृत्व पुष्पकमल दहाल (प्रचंड) नहीं कर रहे हैं। इसके पीछे का कारण क्या है और पुष्पकमल की आगामी योजना क्या है यह तो मिमांशा का विषय है लेकिन इस बार के माओवादी घेरेबंदी से साफ जाहिर होता है कि नेपाल के माओवादी गिरोह में पुष्पकमल की ताकत घटी है। माओवादियों ने इस बार बुलेट के स्थान पर जन समर्थन और गांधीवादी रवैया अपनाने की योजना बनाई है। नेपाल में यह भी माओवाद का एक प्रयोग ही माना जाना चाहिए। इसलिए एक तरह से देखा जाये तो नेपाल का माओवाद अब एक नई धारा पर काम करना प्रारंभ कर दिया है। हालांकि इस विषय पर तुरत मन्तव्य देना जल्दबाजी होगी, क्योंकि माओवादी अतीत के जानने वाले माओवाद के इस नवीन संस्करण पर भरोसा नहीं करते। वैसे नेपाल का माओवादी संगठन लगातार भट्टराई के नेतृत्व में कुछ इसी प्रकार का करने की योजना बनाता रहा है लेकिन चीनी दबाव और ईसाई मिशनरियों के कारण नेपाल का माओवाद नवीन संस्करण में अभी तक नहीं ल पाया। भट्टराइवाद कितना प्रभावी होगा और कब तक प्रचंड चुप बैठेंगे यह तो समय बताएगा लेकिन जो प्रयोग नेपाल के घुर वामपंथी कर रहे हैं उससे कुछ सकारात्मक होने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकात है।
विगत दिनों नेपाल के राष्ट्रपति डॉ0 रामबदन यादव की सूझबूझ के कारण नेपाल की राजनीति पर प्रचंडवादी या इसे चीनी अधिनायकवाद भी कहा जा सकता है हावी नहीं हो सका। लाख चाहने के बाद भी माओवादी सरकार सेना प्रमुख को हटाने में कामयाब नहीं हो पाये और नेपाल, अधिनायकवादी चरम साम्यवादी चुगुल से मुक्ति पाने में सफलता हासिल कर ली। इसके पीछे नेपाल की जनता की सकि्रयता और नेपाली समाज में सांस्कृति संवेदना की महत्वपूर्ण भूमिका को माना जाना चाहिए। आखिर नेपाल की जनता ने प्रचंडवादी चरमपंथ को क्यों नहीं स्वीकारा, इसकी मिमांश से स्पष्ट हो जाता है कि प्रचंडवादी चरमवाद नेपाल की नियती नहीं है। आज चीन में भी इस प्रकार के चरमपंथ का विरोध हो रहा है और चीन ने तो डेग के समय से ही पूंजी के केन्द्रीकरण की छूट दे दी थी। आज चीन में साम्यवाद नहीं अपितु पूंजवादी साम्यवाद है। चीन के साम्यवाद को परिभाषित करने के लिए इतना कहना ठीक होगा कि चीन में अन्य जातियों के लिए साम्यवाद है लेकिन हानों के लिए चीन में पूंजीवाद है।
नेपाल में जब प्रचंड ने सत्ता सम्हाला तो दो प्रकार का अन्तरविरोध सामने आया। नेपाल की बहुसंख्यक जनता ने यह सोचना प्रारंभ कर दिया कि अब नेपाल निरीश्वरवादी हो जाएगा। यहां भी मठमंदिरों पर पर साम्यवादी सेना आक्रमण करेगी और सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर नेपाली सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का गला घोट दिया जाएगा। देखते देखते नेपाल चीनी रंग में रंग जाएगा और नेपाल की स्थिति या तो उत्तर कोरिया जैसी होगी या फिर तिब्बत की तरह नेपाल चीन का गुलाम हो जाएगा। दुसरे प्रकार के जो लोग जिन्होंने प्रचंड के सत्तारोहन में प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका निभाई थी उन्होंने यह मान लिया कि अब नेपाल भी देखते देखते परिवर्तित हो जाएगा। यहां परिवर्तन की हवा वहने लगेगी। यहा विकास का नया कीर्तिमान स्थापित होगा। नेपाल अपने पुराने वैभव में लौटेगा। यहां की गरीबी समाप्त हो जाएगी। यहां के लोगों को छोटे मोटे काम के लिए भारत नहीं जाना पडेगा। लेकिन इन दोनों प्रकार के चिंतन करने वाली नेपाली जनता को प्रचंड ने निराश कर दिया। प्रचंड नेपाल में चीनी नीति पर काम करने लगे। उन्होंने नेपाली राजनीति को अपने पक्ष में करने के लिए मलाइदार पदों पर अपने संबंधियों को बैठाने का प्रयास किया। नेपाल की दसा बिगडने लगी, नेपाल की आर्थिक स्थि्ति खडाब होने लगी। यही नहीं प्रचंडपंथियों के आर्थिक शोषण से नेपाली जनता त्रस्त होने लगी। कई प्रकार के आर्थिक व्यभिचार का आरोप प्रचंड के उपर लगा। इन तमाम गतिरोधों का सामना करने और माओवादी गिरोह के गुरिल्लों को अपने पक्ष में करने के लिए प्रचंड ने कई चाल चली लेकिन सब में असफल होते गये। तब प्रचंडपंथियों ने चीन तथा ईसाई मिशनरियों के इसारे पर एक नयी चाल चली और बाबा पशुपत्तिनाथ मंदिर पर आक्रमण कर दिया। यहां भी प्रचंड को मुह की खानी पडी। अब प्रचंड सेना पर माआवादी गुरिल्ला गिरोह को समायोजित करने का दबाव डालने लगा। इसपर सेना ने अपनी संरचना में छेडछाड से साफ इन्कार कर दिया। तब प्रचंड ने बिना किसी संवैधानिक कारण के सेना प्रमुख को हटाने की घोषणा कर दी। अब सर से उपर पानी बहता देख देश के सर्वोच्च नेता राष्ट्रपति डॉ0 यादव ने हस्तकक्षेप किया और प्रधानमंत्री प्रचंड की इस घोषणा को गैरसंवैधानिक बताया। अबतक इस बात का पता प्रचंड को भी हो गया था कि नेपाल में चीनी शासन बरदास्त नहीं किया जा सकता।
अब नेपाली माओवादी चरंपंथी गिरोह को यह आभास हो गया है कि महज मुट्ठीभर लुटेरों और सिरफिरे हुडदंगियों से सत्ता पर कब्जा तो जमाया जा सकता है लेकिन सत्ता का सही ंग से संचालन तथा देश की स्थिरता जनता की स्वीकृति के बाद ही संभव है। वर्तमान आन्दोलन से यह लग रहा है कि नेपाल का माओवाद एक नया स्वरूप ग्रहण कर रहा है। हालांकि यह नेपाली माओवाद के पीछे काम करने वाली शक्ति की साजिस भी हो सकती है लेकिन प्रचंडपथ का कमजोर होना और भट्टराइपथ की मजबूती इस बात का सबूत है कि नेपाली माओवादी गिरोह को अब यह एहसास हो गया है कि गिरोहबंदी से काम चलने वाली नहीं है। खैर नेपाल का माओवाद यदि भारतीय ाचां ग्रहण किया और नेपाल में भट्टराइवाद सफल रहा तो यह केवल नेपाल के लिए ही नहीं अपितु पूरे दक्षिण एशिया के लिए शुभ होगा। नेपाली माओवाद में लोहिया और गांधी का समावेश सचमुच नेपाल ही नहीं भारत के लिए शुभ संकेत है। इस परिवर्तन की आहट को भारतीय माओवादियों को भी समझना चाहिए। साथ ही यह मान लेना चाहिए कि विदेशी पैसे से चलाया जा रहा आन्दोलन कभी सफल नहीं हो सकता है। अभीतक भारत और नेपाल का माओवाद चीन और ईसाई मिशनरियों के इशारे पर चल रहा है। बाबूराम भट्टराई ने माओवादियों को रास्ता दिखाया है। नेपाल या भारत में माओवादियों को जनकल्याण के लिए कुछ करना है तो अपनी योजना में लोहिया,गांधी दीनदयाल को भी शमिल करना होगा।

Friday, April 10, 2009

मिथिला का अत्यन्त प्राचीन एवं महनीय परम्परा

र्यावर्त में मिथिला का अत्यन्त प्राचीन एवं महनीय परम्परा रहीहै । वैदिक आर्य प्रायः सप्तसिन्धु प्रदेश तक ही सीमित थे । किन्तु, उत्तर वैदिक काल के प्रारम्भ में ही आर्य मिथिला क्षेत्र में आ चुके थे । लगभग ज्ञण्ण्र्ण्र् इ.पू. लिखित शतपथ ब्राहृमण की बहुश्रुत कथा के अनुसार विदेह माथव के नेतृत्व में ऋषिप्रवर पुरोहित गौतम रहुगण के साथ र्सवप्रथम सदानीरा -गण्डकी) को पारकर तत्कालीन निर्जन सघन वन प्रदेश में अग्नि स्थापन कर 'यज्ञिय पद्धति' से इस क्षेत्र को जनावास योग्य बनाया तथा यज्ञिय परम्परा से संयुक्त हुआ । अग्नि आर्य संस्कृति का प्रतीक माना गया है । तभी से वनाच्छादित यह प्रदेश विदेध अथवा विदेह कहलाने लगा । वसाढÞ -वैशाली) से प्राप्त गुप्तकालीन मुहर में तथा वृहत् विष्णपुराण में इसे तीरभुक्ति कहा गया जिसका अपभ्रंश तिरहुत है । नदियों पर स्थित होने के कारण ये पूरा क्षेत्र तीरभुक्ति कहलाया । पर्ूव मध्यकाल में जिला अथवा परगना को भुक्ति कहते थे ।
विष्णुपुराण एवं भविष्य पुराण के अनुसार अयोध्या के र्सर्ूयवंशी निमि नामक राजा को ऋषि वशिष्ठ के शाप के कारण मृत्यु हो गयी क्योंकि राजा निमि ने एक हजार वर्षों तक चलने वाले यज्ञ कराने का निश्चय किया तथा पुरोहित के लिए वशिष्ठ को आमंत्रित किया । उस समय वाशिष्ठ इन्द्र द्वारा पांच सौ वर्षों तक चलने वाला यज्ञ करा रहे थे । यज्ञ समाप्ति के पश्चात पुरोहित बनने का बचन दिया । धर्ैय नही रखकर निमि ने गौतम को पुरोहित बनाकर यज्ञ प्रारम्भ किया । इन्द्र के यज्ञ पश्चात् ऋषि वशिष्ठ निमि के यज्ञस्थल पर पहुँचे तो गौतम को पुरोहित देख अत्यन्त क्रोधित होते हुए निमि को तत्काल शाप दे दिया, निमि का देहिक जीव नष्ट हो गया । निमि का कोई पुत्र नही था । यज्ञ अधूरा देख ऋषि प्रवरों ने आपस में विचार-विमर्श कर निमि के अवशेषों को मथकर उस शरीर से जो बालक उत्पन्न हुआ उसे मिथि कहा जाने लगा । मत्स्य पुराण के अनुसार 'मिथिस्तु मथनाज्जातः मिथिला येन निर्मिता ।' दैहिक चेतना से रहित अर्थ की कल्पना कर 'विदेह' शब्द राजा विशेष की वाचकता हो गयी । कालान्तर में विदेह पद राजवंश एवं राज्य दोनों के लिए वाचक हो गयी । व्युत्पत्ति की दृष्टि से मिथि या मिथिला हिमालयी भाषा समूह के शब्द प्रतीत होता है । मिथिला के अन्य व्यवहृत नाम है, नेभिकानन, ज्ञानपीठ, स्वर्ण्र्ााांगल, शाम्भवी, विकल्मषा, रामानन्दकृति, विश्वभाभिनी, नित्यमंगला, तपोवन, वृहदारण्य आदि । इन सारे क्षेत्रों को सिद्धपीठ भी कहा जाता है । इस क्षेत्र के सभी निवासी मैथिल कहलाते है । विदेह माधव के उत्तराधिकारियों ने लम्बे समय तक मिथिला में राज्य किया । महाकाव्यों तथा पुराणों में कोई पचपन राजाओं का वर्ण्र्ाामिलता है, निमि, मिथि, जनक, उदावसु, नन्दिवर्धन, सेकुत, देवरात, वृहद्रय, महावीर, सुधृति, धृष्टकेतु, हर्यश्व, मरु, प्रतीन्धक, कर्ीर्तिरथ, देवमीढ, विवुध, महीद्रक, कर्ीर्तिशत, महारोमा, स्वर्ण्र्ााेमा, ह्रस्वरोमा, सीरध्वज । कुशध्वज आदि । विदेह के जितने भी राजा हुए सभी तत्वज्ञानी के साथ ब्रहृमवेत्ता भी थे । मिथि और देवरात के बाद सीरध्वज जनक सबसे अधिक विख्यात हुए जिनकी र्सर्ूयशाला में शिक्षित थियी के पुत्र अखरानन द्वारा मिश्र में सूर्योपासना की धार्मिक क्रान्ति लाने की उपकल्पना की गई । हल के नासा से प्राप्त धरती पुत्री सीता हर्ुइ जिन्हें जानकी, वैदेही, किशोरी एवं मैथिली भी कहते हैं । जानकी के अतिरिक्त सरस्वती इसी मिथिलांचल स्थित महोत्तरी -नेपाल) के अभृण ऋषि की पुत्री थी । हैमवती उमा ने महादेव के परिणय सूत्र में आवद्ध होकर जगदीश की पदवी दिलायी ।
सति भवतु सुप्रीता देवी शिखर वासिनी ।
उग्रेण तपसा लब्धो यथा पशुपति पतिः ।।
अधिकांश दर्शन के बीज यहाँ अंकुरित हुये । प्राचीन एवं नवीन न्याय के जनक गौतम एवं गंगेशोषाध्याय का आविर्भाव हुआ । सांख्य दर्शन के पर््रवर्तक कपिल मुनि हुए । मिथिला का व्यवहार धर्म का दर्पण बन गया - धर्मस्य निर्ण्र्ााेज्ञेयो मिथिला व्यवहारतः । जैन और बौद्ध धर्मों को मिथिला में उर्वरा भूमि मिली । परन्तु अन्तिम जनक कराल के दुश्चरित्रता से उस वंश का नाश हो गया और मिथिला 'वज्जिगणतंत्र' में चला गया । समयक्रम में वज्जिगणतंत्र का विखराब हुआ और मिथिला सोलह सौ वर्षों तक परतंत्रता की बेडÞी में जकडÞा रहा । ज्ञण्ढर्ठर् इ. में जब कर्ण्ााट क्षत्रीय राजा नान्यदेव इस प्रदेश पर अपना राज्य स्थापित किया तो इसने मिथिला एवं स्वयं को मिथिलेश्वर कहना आरम्भ किया । नान्यदेव के आगमन से पहली बार मिथिला को अपना राजा मिला । कर्ण्ााट शासन काल में विशिष्ट वैवाहिक पद्धति अथवा पंजी व्यवस्था आरम्भ हर्ुइ, पांडुलिपियों तथा अभिलेखों को शक-संवत के अनुसार लिपिवद्ध किया जाने लगा । विद्वतजन अपने विद्वता के बलपर धन और मान अर्जन करने लगे । कर्ण्ााट तथा उनके उत्तराधिकारी ओईनवार शासकों की सुव्यवस्था में मिथिला लगभग सुरक्षित रही । वस्तुतः पूरे आर्यावर्त में मिथिला ही ऐसा राज्य था जहाँ मुसलमान शासक सबसे अन्त में अपनी प्रभुता स्थापित कर सकी । संक्षेप में कहा जा सकता है कि कर्ण्ााटवंशीय काल में मिथिला का एकीकरण होकर कला, साहित्य और मैथिली भाषा के विकास का उत्कर्षकाल रहा । मिथिला पर कर्ण्ााटवंशीय का शासन लगभग द्दद्दठ वर्षतक चला जो स्वर्ण्र्ााल था । उनकी राजधानी नानपुर से स्रि्रौनगढÞ स्थानान्तरित किया गया जो जनककालीन राजधानी जनकपुर से पश्चिम तथा बारा जिला के कलैया से बीस किलोमीटर दक्षिण पर्ूव में अवस्थित है । कर्ण्ााटवंशीय का वैवाहिक सम्बन्ध काठमांडू उपत्यका के राजा के साथ भी था । गणसुद्दीन तुगलक के आक्रमण के बाद अटूट मिथिला अप्राकृतिक रुप से दो भागों में विभक्त हो गया । उत्तरी मिथिला मुसलमान शासक से विमुक्त रहा जबकि दक्षिण मिथिला मुसलमान शासक के अधीनस्थ हो गया । बाद में चलकर मुसलमान शासक ओईनवार वंश को दक्षिण मिथिला का राज्य सौंप दिया, जिसके एवज में निर्धारित कर लेता था । उत्तरी मिथिला का बचा हुआ शेष भाग का विभाजन ज्ञडज्ञट में पुनः हुआ जिसे हम सुगौली सन्धि से जानते हैं । एकल मिथिला के विभक्त होने के बाद ही समय-समय पर सीमा का विवाद उचरता रहा है, जबकि दोनों राष्ट्रों का राष्ट्राध्यक्ष आर्यपुत्र ही हैं । नेपाल का नामाकरण का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नही है । कहा जाता है कि नेत्र मुनी बागमती एवं विष्णुमती के तट पर स्थित टेकु स्थान पर उनके घर में तपस्या किया करते थे । वहाँ के संरक्षक राजा ने उन्हीं के नाम से उक्त स्थल का नाम रख दिया । तिब्बती भाषा में 'ने' का अर्थ घर और पाल का अर्थ ऊन होता है । संस्कृत वांगमय के अनुसार देवताओं के वासस्थान को ने कहा जाता है । भाषाविदों ने लिखा है - "ने नीतिः ताम्पालवति नेपालः" । इसे और स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि न्यायः पाल्यते य ः सः नेपाल ः । वाद में चलकर यह पूरा क्षेत्र नेपाल के नाम से जनप्रिय हो गया । वृहद विष्णुपुराण, मिथिला माहात्म्य, अध्याय ज्ञद्ध श्लोक द्धद्द-द्धद्ध के आधार पर कोशी से गण्डक तक, गंगा प्रवाह से हिमालय वन तक की तीरभुक्ति अथवा मिथिला कहा गया है । श्री महेन्द्र नारायण शर्मा कृत मिथिलादेशीय - पञ्चांग, मृख पृष्ठ, सन् ज्ञघछज्ञ साल, ज्ञढद्धघ-द्धद्ध में प्रकाशित अनुसार ः
गंगा वहथि जनिक दक्षिण पर्ूव कौशिकी धारा ।
पश्चिम वहथि गण्डकी उत्तर हिमवत वन विस्तारा ।
कमला त्रियुगा अमृता धेमुरा वागमती कृत सारा ।
मध्य वहथि लक्ष्मणा प्रभृत्ति से मिथिला विद्यागारा ।।
आज ये लगभग पाँच हजार वर्षपर्ूव यह क्षेत्र गंगासागर का भाग था और अरब सागर से भी जुडÞा था । अजातशत्रु के समय मिथिला का ऐसा उत्कर्षकाल था कि चीन के दक्षिण भाग की वस्तियों का नाम मिथिला के नाम पर था । यथा मानचाड का नाम मिथिला रखा गया था । मिथिला का अतीत कहता है कि मिथिला याचना नही करता परन्तु अयाची ने शंकर को जन्म देकर सम्पर्ूण्ा जगत को वर्ण्र्ााकरने का सामर्थ्य दिया, भामती ने दीप को सहेज कर वाचस्पति का अंक पूरा की, भारती अर्द्धर्ाागनी के रुप में मंडन मिश्र को विजयश्री दिलायी, विद्योत्तमा ज्ञानदात्री बनी कालिदास का, सीता ने सहिष्णुता दी समस्त नारी समाज को । आज धरती पुत्री सीता कराह रही है मिथिला की वेदना पर और मूक होकर अपनी माता के गर्भ से कह रही है, मिथिला विमुक्त हो हिंसा से, मीमांसा, न्याय, वेदाध्ययन से पटु तथा विद्वतजन से मंडित हों ।
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वीरगंज में हास्य कवि सम्मेलन
स्ववियू निर्वाचन सम्पन्न
कार्यक्रम सम्पन्न
सभी के जीवन में उजाला


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The word 'property' itself connotes to some significance in each and every individual's life. In the modern world where economic activities have become the integral part of any state, the value of property can not be denied. So it is obvious that each state guarantees the rights of their citizens to the property as a fundamental right in the constitution. Property is regarded as the movable, immovable seen, observable goods etc which in exchange have some worth. But the property related to a person’s skill or creativity is has not been duly recognised in Nepal. The property which is related to individual's skill, creativity, talent, knowledge is intellectual property.
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Cabinet names ambassadors to India, France The government has named the ambassadors for India and France. A cabinet meeting on Wednesday named Dr Chandra Kanta Poudel and Maoist central leader Ram Karki as the ambassadors to India and France respectively. The ambassador-nominees are required to undergo parliamentary hearing before being appointed to their posts.
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PM Dahal confers with industrialists, says plans afoot to rescue them Prime Minister Pushpa Kamal Dahal on Wednesday said the government is committed towards resolving problems prevalent in the industrial sector of the country, and as per this will soon declare it "bandh free zone" where all kinds of strikes will be banned. He also said the government is planning to introduce projects to weed out the problems facing the sector. "Industries are the backbones of the economy and so the government is planning to prohibit all kinds of strikes in the industrial sector," PM Dahal said. In a meeting with representatives of representatives of Federation of Nepalese Chambers of Commerce and Industries, Confederation of Nepalese Industries (CNI) and other business organizations at the Prime Minister's Office (PMO) in Singha Durbar, PM Dahal gave a patient ear to the grudges of the industrialist and businessmen. Finance Minister Dr Baburam Bhattarai, Industry Minister Astalaxmi Shakya and Water Resources Minister Bishnu Poudel were also present in the meeting According to President of CNI Surendra Bir Malakar, who was also present in the meeting, they basically requested PM Dahal to make arrangements for an unrestricted power supply so that industries can operate without any glitches. Similarly, they also requested him to make alternative arrangements to end the prolonged hours of load-shedding that is seriously affecting country's productivity and harming the economy. Malakar said PM Dahal was very positive towards their demands. Many industries are running far below capacity or have already closed their shutters due to the excruciating load-shedding regime
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Astrologers finally settle for a 12-month calendar After a long controversy on whether to use a 12-month or an 11-month calendar for Nepali year BS 2066, astrologers have settled on continuing the 12-month calendar to minimise the hassles a changed calendar would invite. Chairman of Panchanga Nirnayak Samiti, Professor Madhav Bhattarai, informed on Tuesday that an all party religious meeting had decided to stick to the old 12-month calendar for technical reasons. “Making an 11-month calendar will bring a lot of hassles in practice,” said Dr Bhattarai. “So, we have decided to stick to the 12-month calendar.” Ministry of Culture and State Restructuring has also directed the Panchanga Nirnayak Samiti-the apex government body to decide on matters related to calendar-to adopt a 12-month calendar for 2066. Earlier, a task force formed by the government had recommended the government for an 11-month calendar in 2066 in order to adjust the timing of Nepali festivals with seasons of the year. The seasons of the year are determined by solar movement, while the Nepali calendar is based on the earth’s movement. Considering the earth’s movement vis-à-vis solar movement, Nepali year is already 23 days behind. This has resulted in Nepali festivals occurring 23 days later according to the seasons. The task force recommended the government to scrap Chaitra – the final month of the Nepali year in order to make up for the ‘loss’. Astrologers have already prepared the 12-month calendar and forwarded it for printing.
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Wednesday, April 8, 2009

सीपीएम का सांप्रदायिक चेहरा उजागर - डॉ. कुल्दिप्चन्द अग्निहोत्री

सीपीएम का व्यक्तित्व शुरू से ही दोहरा रहा है । यह सीपीएम का दोष नहीं है बल्कि उसके हार्ड वेयर का भीतरी दोष ही है । सीपीएम स्वयं का प्रगतिशील और प्रगतिवादी कहता है । उसका मानना है कि प्रगतिवाद के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा सम्प्रदाय अथवा मजहब है । इसलिए जहॉं भी साम्यवादियों की सत्ता आती है तो वे सबसे पहले वहॉं के विभिन्न मजहबों अथवा सम्प्रदायों को नष्ट करने का प्रयास करते हैं । माक्र्सवादी ऐसा स्वीकार करते है कि मजहब अथवा सम्प्रदाय के आधार पर व्यक्ति की जो पहचान बनती है वह प्रगति के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा होती है । इसके विपरीत व्यक्ति की पहचान उसके वर्ग के आधार पर होनी चाहिए । वर्ग की यह पहचान संघर्ष की धार को तेज करती है जिससे प्रगतिवादी समाज की स्थापना होती है । भारत के माक्र्सवादी भी मोटे तौर पर इस सिद्वांत को स्वीकार करते हैं और उन्हें ऐसा करने का पूरा अधिकार भी है । भारत की मिट्टी की यही खूबी है कि यहॉं विभिन्न विचारधाराओं, और दर्शन शास्त्रों को विकसित होने का पूरा अधिकार है । परन्तु सीपीएम की यह दिक्कत है कि इस वैचारिक आधार पर वे इस देश की सत्ता हासिल नहीं कर सकते । यही कारण है कि साम्यवादी आंदोलन सिकुड़ता सिकुड़ता अन्तत: पश्चिमी बंगाल और केरल तक सीमित हो गया है । पश्चिमी बंगाल में भी कामरेडों के भ्रष्टाचार और जनविरोधी आचरण के कारण, उनका दुर्ग हिलने लगा है । केरल में तो पहले ही वे पॉच साल के अन्तराल के बाद सत्ता में आ पाते हैं । सत्ता प्राप्त करने की हड़बड़ी में सीपीएम ने अब विशुद्व अवसरवादी रास्ता अख्तियार करने का निर्णय कर लिया लगता है । यही कारण है कि सीपीएम लोकसभा के होने वाले चुनावों में केरल में मुस्लिम आतंकवादी संस्थाओं के साथ चुनाव समझौता कर रही है । सीपीएम भी जानती है कि यदि कट्रतावादी मुस्लिम संस्थाओं और आतंकवादी मुस्लिम संगठनों की मदद ली जाती है तो शायद कुछ सीटें तो पार्टी की झोली में आ जायेगी परन्तु उससे देश को बहुत नुक्सान होगा । साम्प्रदायिकता के जहर से राष्ट्रीयता खंडित होती है- ऐसा कामरेड भली भांति जानते हैं । परन्तु लगता है दिल्ली की सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने की सीपीएम को इतनी व्याकुलता है कि वह साम्प्रदायिकता के इस अजगर को साथ लेने से भी गुरेज नहीं कर रही । प्रसंग केरल का है । केरल में सीपीएम ने अबदुल निसार मदनी की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से चुनावी समझौता किया है । मदनी कोयम्बटुर बम बलास्ट के मुख्य अभियुक्त थे । उनके लश्कर और इंडियन मुजाहदीन से गहरे रिश्ते हैं । वैचारिक स्तर पर उनकी पार्टी मुसलमानों को अलग राष्ट्र के रूप में मानती है और वे स्वंय को भारत का विजेता मानने का स्वप्न पालते हैं । मदनी और उनकी पार्टी मानती है कि मुसलमानों ने भारत को जीता था और इस पर अपना राज्य स्थापित किया था । मुसलमानों से अंग्रेजों ने भारत का राज्य छीन लिया लेकिन दो सौ साल बाद वे यहॉं से जाते समय राज्य भारतीयों को सौंप कर चले गये, मुसलमानों को नहीं । मदनी और उनके अनुयायी अब यह राज्य आतंक और शस्त्र बल से प्राप्त करना चाहते हैं । यह अलग बात है कि मदनी और उन जैसे दूसरे लोग भारत पर आक्रमणकारी मुसलमानों की सन्तान नहीं हैं बल्कि वे भारतीयों में से ही परिवर्तित हुए हैं । परन्तु मदनी अपनी पहचान उन आक्रमणकारी मुस्लिम आक्रांताओं से ही जोड़ते है। सीपीएम इसी मदनी से चुनाव में समझौता कर रही है । इससे केरल का सम्पूर्ण राजनैतिक परिदृश्य साम्प्रदायिक विष से विषाक्त हो जायेगा । परन्तु कामरेड तमाम सिद्वांतों को भूल कर साम्प्रदायिकता का वर्जित सेब खाना चाहते है। यह अलग बात है कि यह सेब खाने के बाद वे भारत के स्वर्ग से बाहर धकेल दिये जायेंगे । लेकिन सत्ता के सेब के लालच ने उनकी ऑखों पर पट्टी बांध रखी है । ऐसा नहीं कि मदनी और उनकी पार्टी के इस सम्प्रदायिक चेहरे को सीपीएम वाले पहचान नहीं रहे । यहॉं तक कि मदनी से समझौता करने के प्रश्न पर सीपीएम के ही कुछ तपे तपाये और सिद्वांतवादी लोग खिन्न चित्त हैं ।केरल के माक्र्सवादी मुख्यमंत्री वी.एस. अज्युतानन्दन इसका विरोध कर रहे हैं । उन्होंने तो यहॉं तक कहा है कि केरल सरकार मदनी के आतंकवादियों से सम्बन्धों की जॉच भी करवा रही है । उनका मानना है कि मदनी जैसे साम्प्रदायिक आतंकवादियों से समझौते से सीपीएम की मूल पहचान समाप्त हो जायेगी और वह सत्ता लोलुप राजनैतिक दल के रूप में परिवर्तित हो जायेगी । परन्तु जैसा की राजनीति में होता है सत्ता के लालच में जब कोई भी राजनैतिक दल अपने सिद्वांत छोड़कर बाजार में निकल आता है तो उसके लिए मर्यादा की सभी सीमाएं अपने आप ही समाप्त हो जाती हैं । इसी के चलते सीपीएम ने सबसे पहले भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से समझौता किया । केरल के सीपीएम के महासचिव विजय पिन्यारी कनाडा की किसी कम्पनी के साथ करोड़ों के घोटाले में संलिप्त पाये गये । प्रदेश के मुख्यमंत्री अच्युतानन्दन ने इसकी जॉच भी करवानी चाही , लेकिन सारी पोलित ब्यूरो विजय के साथ खड़ी हो गई । शायद एक कारण यह भी रहा होगा कि विजय की जॉच के बाद पता नहीं कितने चेहरे बेनकाब हो जायेंगे । भ्रष्टाचार से समझौता करने के बाद दूसरा पड़ाव अब्दुल नसार मदनी की पीपुल्स डेमोक्र ेटिक पार्टी के साथ समझौते का ही बचता था, जो सीपीएम ने पूरा कर दिखाया है । गॉंव की एक कथा है कि मेरा बेटा जुआ तब खेलता है जब शराब पी लेता है । शराब तभी पीता है जब मीट खा लेता है और मीट तभी खाता है जब उसे वेश्यालय में जाना होता है । वैसे बेटे में कोई दोष नहीं है । लगता है कार्ल माक्र्स के इस भारतीय बेटे की यही दशा हो रही है । माक्र्स भी सीपीएम के इस साम्प्रदायिक चेहरे को देखकर कब्र में अपने बाल नोच रहे होंगे ।

सीपीएम का सांप्रदायिक चेहरा उजागर

नेपाली लोकतंत्र का गला घोटनें की फिराक में है माओवादी - गौतम चौधरी

भारत का पारंपरिक पडोशी नेपाल एक बार फिर गृहयुद्घ की ओर बढ रहा है। नेपाल में सक्रिय ईसाई मिलीशिया, माओवादी आतंकियों ने सरकार से बगावत कर पुन: पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी में नए गुरिल्लों की भर्ती की घोषणा की है। इस घोषणा के बाद माओवादियों और नेपाली सेना में युद्घ की सम्भावना बढ गयी है। इधर नेपाली सेना ने भी नए जवानों की बहाली प्ररारंभ की है। दोनों ओर तनातनी से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि नेपाली माओवादी नेतृत्व और सेना के बीच भारी गतिरोध है। इस द्वन्द्व की परिणति पर मिमांशा करने से जो बातें ध्यान में आती है वह नेपाल के लिए तो बुरी है ही भारतीय कूटनीति के लिए भी अच्छा संदेश नहीं है। इस प्रकार का द्वन्द्व या गतिरोध केवल माओवादियों और सेना के बीच में ही नहीं है अपितु नेपाल में सरकार चला रहे गठबंधन में भी है। हालांकि नेपाली प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ने अपने बायान और भौतिक प्रयास से नेतृत्व के गतिरोधों को समाप्त करने का प्रयास तो किया है, लेकिन जिस प्रकार चरमपंथी नेता तथा नेपाल के गृहमंत्री बाबूराम भट्टराई और प्रतिरक्षा मंत्री राम बहादूर थापा ने बयान दिये और फिर उसके तुरन्त बाद विदेश मंत्री तथा मधेशी जनाधिकार फोरम के नेता उपेन्दा्र प्रसाद यादय ने माओवादियों पर पलटवार किया उससे स्पष्ट हो गया है कि सरकार में शामिल पार्टियों को नेपाल की चिन्ता नहीं अपितु उनें अपने हितों की चिन्ता है। वर्तमान गतिरोध से सरकार में शामिल सबसे बडी पार्टी नेपाल की काम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) की मन्शा का एक बार फिर से खुलासा हो गया है। यह भी स्पष्ट हो गया है कि नेपाली माओवादी लोकतंत्र की बात भले कर लें लेकिन उन्हें किसी कीमत पर लोकतंत्र पसंद नहीं है। नेपाली माओवादी नेता अभी भी उसी प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं जिस प्रकार का व्यवहार वे भूमिगत रहने के समय किया करते थे। तमाम बिन्दुओं पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि माओवादी एक बार फिर लडाई की पृष्टभूमि तैयार करने लगे हैं। माओवादियों को १४ हजार भोले भाले नेपालियों की हत्या से मन नहीं भरा है। वे कुछ और लोगों की हत्या करना चाहते हैं। माओवादियों के बीच बहस चल रही है कि यह सत्ता आधी अधूरी है। इससे माओवाद की मूल अवधारना को नहीं पया जा सकता है इसलिए कुछ और लोगों की हत्या कर सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण किया जाये। माओवादी सोच के कारण सेना में भारी आक्रोश है। सेना पारंपरिक संस्कृति को बनाए रखना चाहती है। सेना लोकतंत्र का भी समर्थन कर रही है, लेकिन माओवादी यह प्रचार करने में लगे हैं कि सेना जनता के द्वारा चुनी गयी सरकार को अस्थिर करना चाहती है। जानकारों का मानना है कि माओवादी अब तीसरे चरण की लडाई के फिराक में हैं। माओवादियों को भूमिगत अभियान के समय चीन, ईसाई मिशनरी और पाकिस्तान से सहायता मिली था। अब माओवादियों को ये तीनों शक्तियां अपने अपने एजेंडों को नेपाल में लागू करने के लिए दबाव डाल रही है। इधर राष्ट्रवादी सोच ने सेना को एहसास करा दिया है कि वर्तमान गतिरोध में अगर उसने माओवादियों के सामने घुटने टेक दिया तो चीन और रूस की तरह सेना को अपने वास्तविक स्वरूप में परिवर्तन करना होगा। फिर नेपाल का भी वास्तविक ढांचा समाप्त हो जाएगा और पता नहीं नेपाल कहां पहुंच जाएगा। इन तमाम बिन्दुओं पर विचार करने से नेपाल का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है। इन्ही सोच ने नेपाली सेना को माओवादियों से सतर्क रहने की शक्ति प्रदान कर दी है। सेना के तेवर से यही जान पडता है कि सेना माओवादियों के सामने घुटने नहीं टेकेगी और माओवादी गतिरोध बढा तो सेना अपने हिसाब से गतिविधि भी चला सकती है। फिलवक्त तत्कालीन गतिरोध के पीछे का कारण माओवादियों के द्वारा फिर से ङ्क्षहसक होने की घोषणा है। लोकतंत्रात्मक गतिविधि के बाद एक बार ऐसा लगा था कि नेपाली माओवादी अब अपने तमाम एजेंडों को छोड नेपाल के विकास के लिए काम करेंगे, लेकिन नेपाली माओवादियों को न तो चीन और न ही ईसाई मिशनरी इस काम में लगने देगा। माओवादी रणनीति के जानकारों का मानना है कि अब माओवादी दो सिद्घांतों पर काम करने की योजना बना रहा है। पहला किसी तरह सेना पर नियंत्रण करना और दूसरा नेपाली प्रबुद्घ-जन को इतना डरा देना कि वह किसी प्रकार का नया लोकतंत्रात्मक आन्दोलन खडा नहीं कर पाये। माओवादियों की इसी रणनीति के कारण नेपाल मीडिया सडक पर आ गयी। फिर माओवादियों ने विश्व प्रसिद्घ पशुपतिनाथ जी के मंदिर पर आक्रमण कर दिया। इन दोनों कृत्यों ने माओवादियों की सोंच को जाहिर कर दिया है। नेपाल में हो रहे नित नवीन घटनाक्रमों से एसा प्रतीत होता है कि नेपाल का माओवाद पूर्णरूपेण प्रयोजित है। नेपाली आवाम लोकतंत्र में विश्वास करता है। माओवादियों के साथ चंद लोग हैं और सत्ता में आने के बाद माओवादी जनता की उस कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं जिसका उन्होंने वादा किया था। इस परिस्थिति में माओवादियों को अब सत्ता पर पूर्ण अधिकार चाहिए जिससे वे मनमानी कर सकें। नेपाल का हिन्दुत्व और नेपाली सेना इस दिशा में माओवादियों के सामने लगातार चुनौती खडी कर रहे है। माओवादी इन चुनौतियों से काफी परेशान है। यही कारण है कि माओवादी अब अनरगल कृत्य पर उतारू हो गये हैं। साम्यवादियों की यह कोई पहली पहल नहीं है। इससे पहले दुनिया के सामने कई उदाहरण हैं जो साम्यवाद के लाल चोंगा को खुंखार बना देता है। २०वीं शताब्दी में रूस में कथित रक्तहीन क्रांति हुई थी। दुनिया उसे बोलसेविक क्रांति के नाम से जानती है। उसके नेता ब्लादमीर एलिच लेनिन थे। उन्हें भी लोकतंत्र पसंद नहीं था और इसीलिए कैरंसकी को सत्ता से हटाकर लेनिन ने रूस पर अपना कब्जा जमा लिया। स्ट्रालीन उससे भी खतरनाक निकला और स्ट्रॉलीन ने ट्रॉस्की जैसे जनोन्मुख विचार रखने वाले साम्यवादी की हत्या तक करवा डाली। चीन में भी यही हुआ जो आज नेपाल में हो रहा है। वामपंथ में लोकतंत्र का कोई महत्व नहीं होता। वहां साम्यवादी नेता के सामने किसी की नहीं चलती है और यही कारण है कि माओ के युग के बाद चीन अमेरिका परस्त डेंगवादी हो गया। नेपाल के जनतंत्र को हडपने के लिए ताना-बाना बूना जा रहा है। हालांकि नेपाली सेना ने संयम का परिचय दिया है। नेपाली सेना अपने काम में लगी है। उसे इस बात का अंदाज है कि समय रहते सतर्कता नहीं बरती गयी तो नेपाल का सांस्कृतिक स्वरूप समाप्त हो जाएगा। नेपाल का जनमानस भी अब माओवादियों की भावना को समझने लगा है। पूर्व में मीडिया और प्रगतिशील कहे जाने वालों ने माओवाद का समर्थन तो किया लेकिन जब माओवादियों की मन्शा पर से पर्दा उठने लगा तो लोग किनारे कटने लगे हैं। माओवादी अपने ही जाल में फसने लगा है। माओवादी विचारक, नेता और कार्यकर्ता समय रहते नहीं चेते तो नेपाल की जनता उन्हें दरकिनार कर सकती है। फिर माओवादियों को इतना तो विचार करना ही चाहिए कि आज की परिस्थिति और लेनिन, माओ के समय की परिस्थिति में फर्क हैं। यही नहीं रूस और चीन से नेपाल का कुछ भी मेल नहीं खाता। इसलिए नेपाल की क्रांति को रूस और चीन की क्रांति से तुलना करना ठीक नहीं होगा। माओवादियों को अपने धरातल का अगर ज्ञान है तो उन्हें विचार करना चाहिए कि नेपाल का निमार्ण किस प्रकार किया जाये। नेपाली माओवादियों को इस विषय पर भी विचार करना चाहिए कि अब वे लोग भूमिगत गुरिल्ले नहीं रहे, वे सरकार चला रहे हैं। साथ ही यह भी विचार होना चाहिए कि उस सरकार में केवल माओवादी ही नहीं हैं उनके साथ कई विचारधारा के लोग सरकार में शमिल हैं। फिर यह विचार होना चाहिए कि जिस प्रकार नेपाल का राजा, नेपाल की जनता, सेना, मीडिया, न्यायालय और प्रशासन जनतंत्र का सम्मान कर रहा है उसी प्रकार माओवादियों को भी जनतंत्र का सम्मान करना चाहिए। नेपाल में माओवादियों को विशेष दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। इससे नेपाल का स्वरूप बिगर जाएगा और नेपाल का सांस्कृतिक भूगोल भी विदा्रुप हो जाएगा। नेपाल की परिस्थिति से भारत पर भी प्रभाव पडना स्वाभाविक है। नेपाल में संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन दोनों का हित टकरा रहा है। नेपाल में चीन मजबूत होता है तो अमेरिका की कूटनीतिक हार होगी और अमेरिका मजबूत होता है तो वह चीन के लिए खतरनाक होगा। नेपाल दोनों महाशक्तियों का अखाडा बनता जा रहा है। इस अखाडे से अन्ततोगत्वा भारत को ही घाटा होगा। भारत को इस दिशा में पहल करनी चाहिए और नेपाल में हो रहे नित नवीन परिवर्तन को सकारात्मक बनाने की योजना बनायी जानी चाहिए। भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ में इस मुद्दे को उठाना चाहिए कि महाशक्तियों के द्वारा नेपाल में हो रहे हस्तक्षेप बंद हों। ऐसा नहीं करने से नेपाल तो मरेगा ही भारत के लिए एक और समस्या खडी हो जाएगी। जिस प्रकार चीन, पाकिस्तान, म्यामा, बांग्लादेश और श्रीलंगा से भारत को चुनौती मिल रही है उसी प्रकार नेपाल से भी चुनौती मिलने लगेगी। इस परिस्थिति में नेपाल के लिए भारतीय हस्तक्षेप जरूरी है।